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________________ नवकार मंत्र : शांति का स्त्रोत संसार में प्रत्येक प्राणी शांति चाहता है। सुख चाहता है । वह संसार के अनेक पदार्थो,वैभवों और संपदाओं में सुख की आशा लिए रहता है किंतु आशाएँ निराशाओं में बदल जाती है, क्योंकि ये सभी बाह्य आकर्षण शाश्वत नहीं है, नश्वर है। अपने सच्चिदानंद स्वरुप की अनुभूति और प्राप्ति में ही शांति और सुख है। ज्ञानी महापुरुषों ने अपने जीवन में ऐसा साक्षात् अनुभव किया है। अतएव शांति और सुख चाहने वाले प्रत्येक व्यक्ति का सबसे पहला कर्तव्य यह है कि वह सच्चिदानंद स्वरुप का निश्चय करे । इसे आत्मावबोध कहा जाता है। एक जिज्ञासु प्रयत्नद्वारा ऐसा कर लेता है किंतु जब तक उसके सामने ऐसे आदर्श निश्चित नहीं होते, जिनका अनुकरण कर वह अपने साधना - पथ पर आगे बढ़ सके, तब तक उसकी प्रगति नहीं होती । साधक के लिए सर्वोत्तम आदर्श सच्चिदानंद - स्वरुप विशुद्ध आत्मा, परमात्मा ही हो सकते हैं। कोई भी विकारयुक्त जीव उन्हीं आदर्शो को अपने समक्ष रखकर अपने अंत:करण में उत्साह, प्रेरणा और शक्ति संचित कर सकता है जो विकार रहित या दोष वर्जित हो। जिन्होंने राग और द्वेष को जीत लिया है, जिनका ज्ञान दिव्य है, जो अपरिमित, अध्यात्मिक आनंद से आप्लावित है, अनंत शक्तिशाली है, ऐसी महान आत्माओं को आदर्श के रुप में अपने समक्ष रखने से मिथ्या बुद्धि का नाश होता है, दृष्टि परिष्कृत और परिमार्जित होती है। राग, द्वेष, काम, क्रोध, मोहयुक्त भाव हृदय से निकल जाते हैं । अंत:करण में आध्यात्मिक चेतना का उद्भव होता है ।१३३ अरिहंत - भगवंत्, सिद्ध - भगवंत, आचार्य उपाध्याय तथा साधु - इनमें से प्रत्येक का प्रथम अक्षर लेने से 'असिआउसा' ऐसा महत्त्वपूर्ण वाक्य, मंत्र निर्मित होता है, जिससे ॐ के रुप में योगबिन्दु का स्वरुप निष्पन्न होता है, इसलिए इस मंत्र का शुद्ध भावपूर्वक जप करना चाहिए। १३४ नवकार में पंचपरमेष्ठियों के रुप में ऐसे ही आदर्श विद्यमान हैं। नवकार उनका सर्वोत्तम रुप हैं। उसके श्रवण, स्मरण, चिंतन, मनन, रटन से साधक अंतर्विकारों से छूट जाता है । वासनाओं के कारण विभ्रांत बना हुआ मन जो अनाश्रित की तरह इधर-उधर भटकता रहता है, नवकार मंत्र के उच्चारण और जप द्वारा वासना रहित, शुद्ध और स्वस्थ बन सकता है। नवकार मंत्र में जिस भाव का संग्रथन हुआ है, वह सामान्य से सामान्य साधक से लेकर अत्यंत उच्चकोटि के साधक के लिए भी कल्याणकारी है। यहाँ एक बात पर विशेष ध्यान देना आवश्यक है - मंत्र या मंगल वाक्य के प्रति मन में सुदृढ़ श्रद्धा एवं निष्ठा का होना अत्यंत आवश्यक है। सभी दार्शनिकों की यह मान्यता है कि जब तक मन में आस्तिकता का भाव उत्पन्न नहीं होता, मंत्र के प्रति, जप के प्रति श्रद्धा नहीं (११६)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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