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पंच नमस्कृति दीपक में रक्षा मंत्र का उल्लेख हुआ है , जो इस प्रकार है - “ॐ हीं नमो अरिहंताणं पादौ रक्ष रक्ष।" “ॐ हीं नमो सिद्धाणं कटिं रक्ष रक्ष ।" "ॐ हीं नमो आयरियाणं नाभिं रक्ष रक्ष ।” “ॐ हीं नमो उवज्झायाणं हदयं रक्ष रक्ष ।” “ॐ हीं नमो लोए सव्व साहूणं कण्ठं रक्ष रक्ष ।” “ॐ हीं एसो पंच नमस्कारो (णमोक्कारो ) शिखा रक्ष रक्ष ।” “ॐ हीं सव्वप्पावपणासणो आसनं रक्ष रक्ष ।” "ॐ हीं मंगलाणं च सव्वेसिं पढ़म होइ १२४ मंगलं आत्मवक्षः परवक्षः रक्ष रक्ष ।”
___ इति रक्षामन्त्रः॥ शरीर विषयक रक्षा मंत्रों में जिनदेवों से मंत्र पदों द्वारा रक्षा की अभ्यर्थना की जाती है, उनको संबोधित कर रक्षा की मांग की जाती है । “ॐ हीं नमो अरिहंताणं" पद पैरों की रक्षा करो, रक्षा करो। “ॐ हीं नमो सिद्धाणं "पद कटि - कमर की रक्षा करो। रक्षा करो। " ॐ हीं नमो आयरियाणं " पद नाभि की रक्षा करो, रक्षा करो । “ ॐ हीं नमो उवज्झायाणं " पद हृदय की रक्षा करो, रक्षा करो । “ॐ हीं नमो लोए सव्व साहुणं " पद कंठ की रक्षा करो, रक्षा करो। “ॐ हीं एसो पंच नमोक्कारो” पद शिखा की रक्षा करो, रक्षा करो।१२५ “ ॐ हीं सव्वप्पाव पणासणो।” आसन की रक्षा करो, रक्षा करो । “ॐ
ही मंगलाणं च सव्वेसि, पढम होइ मंगलं” वक्ष-स्थल की तथा दूसरों के वक्ष-स्थल की रक्षा करो, रक्षा करो। १२६
इस रक्षा मंत्र में शरीर के अंगोपांगो की रक्षा का उल्लेख है। १२७ यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है, जैन धर्म तो आत्मा के उत्थान और विकास का धर्म है । देह की रक्षा को इतना महत्त्व क्यों दिया गया ? देह तो नश्वर हैं । उसमें आसक्ति होना धर्म है। विपरीत है। जब आसक्ति होती है, तब देह की रक्षा की माँग जाती है। इसका गहराई से चिंतन करना अपेक्षित है । जब तक साधना में पूर्ण सफलता प्राप्त नहीं हो जाती, तब तक आत्मा और देह का संबंध बना रहता है । एक धार्मिक आराधक के लिए देह धर्म का उपकरण है। देह युक्त आत्मा द्वारा विविध प्रकार के तपश्चरण आदि किये जाते हैं, जो आत्मा के कल्याण के साधक हैं, सहायक है । अत: उनकी रक्षा का, स्वस्थता का अपना महत्त्व है।
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