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________________ जिस प्रकार दही में मक्खन तथा कविता में ध्वनि ११७ सारभूत है, जिनेश्वर द्वारा प्ररुपित धर्मानुष्ठानों में उसी प्रकार परमेष्ठी - नमस्कार सारभूत है ।११८ श्रेष्ठभाव पूर्वक पंचपरमेष्ठी महामंत्र का स्मरण करने से अग्नि जल बन जाती है, सर्प पुष्प माला बन जाता है, विष अमृत बन जाता है, तलवार हार का रुप ले लेती है। सिंह हरिण बन जाता है । शत्रु मित्र हो जाता है। दुर्जन सज्जन हो जाता है । वन महल बन जाते हैं। चोर भी रक्षक बन जाते हैं । क्रूर कष्टप्रद ग्रह भी शीघ्र अनुग्रह - कृपा करनेवाले बन जाते हैं। अपशकुन भी उत्तम शकुनों जैसा फल देते हैं। दुष्ट स्वप्न भी तत्क्षण उत्तम स्वप्नों जैसे बन जाते हैं। शाकिनी - पिशाचिनी ११९ अत्यंत वात्सल्य भाव दिखलानेवाली माता के समान बन जाती है। विकराल वैताल पिता के समान प्रेम युक्त बन जाते है। दुष्ट मंत्र, तंत्र और यंत्र आदि प्रयोग असमर्थ हो जाते हैं। सूर्य का उदय हो जाने के बाद उल्लू कहाँ तक क्रीड़ा कर सकता है अर्थात् सूर्योदय हो जाने पर उल्लू को दीखना बंद हो जाता है, इसलिए उसके क्रिया कलाप रुक जाते हैं। ज्ञानी पुरुष जागृत स्थिति में, शयन काल में, स्थिरता में, गमन में, तथा छींक आने के बाद भी नवकार महामंत्र का स्मरण करते हैं। नवकार के प्रभाव से इसलोक में अर्थ, काम आदि की प्राप्ति होती है तथा परलोक में उच्च कुल में जन्म आदि तथा स्वर्ग या मोक्ष की प्राप्ति होती है। १२० सुकृत सागर में नवकार सुकृत-सागर, जिसका दूसरा नाम पेथड़ चरित्र है, श्रीसोमसुन्दर सूरि के शिष्य श्रीरत्नमंड नगणि द्वारा रचित हैं। उन्होने पंद्रहवीं विक्रम शताब्दी में इसकी रचना की। उनका ‘जल्प - कल्पलता' नामक एक और कवित्व पूर्ण ग्रंथ सुप्रसिद्ध है। सुकृत सागर की पाँचवी तरंग में नवकार की महिमा का वर्णन है। वहाँ उल्लेख है -पंच नमस्कार मंत्र कल्पवृक्ष से भी अधिक प्रभावशाली है। उसके प्रत्येक अक्षर में एक हजार आठ महा विद्याएँ विद्यमान हैं। इनके प्रभाव से चोर मित्र बन जाते हैं। सर्प माला बन जाती है, अग्निजल बन जाती है। जल स्थल बन जाता है। घोर वन नगर बन जाता है तथा सिंह शियार बन जाता है। __पंच नवकार मंत्र का भलीभाँति ध्यान करने से लोक में सब आपत्तियाँ दूर हो जाती हैं। समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं तथा जन्मांतर में राज्य, स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त होता है। १२१
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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