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________________ मातापिता के तुल्य हो, नेता - मार्गदर्शक हो, मेरे परमदेव हो, परमगुरु हो । मेरे प्राण स्वरुप हो । मेरे लिए स्वर्ग रुप हो, अपवर्ग - मोक्षवत हो। सत्व हो, तत्व हो, मति हो एवं गति हो। अर्हन्तो भगवन्त इन्द्रमहिता: सिद्धाश्च सिद्धिप्रदाः, आचार्या जिनशासनोन्नतिकरा: पूज्या उपाध्यायकाः । श्री सिद्धान्त सुपाठका मुनिवरा रत्नत्रया राधका:, पंचैते परमेष्ठिन: प्रतिपदिनं कुर्वन्तु नो मंगलम् । ११५ ९) इन्द्रों द्वारा पूजित अरिहन्त प्रभु, सिद्ध-स्थान में अवस्थित सिद्ध भगवान जिनशासन के उन्नायक आचार्य भगवान्, आगम सूत्रों के उत्तम पाठक - साधु - साध्वियों को वाचना देनेवाले, अभ्यास करानेवाले उपाध्याय भगवान् तथा सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् चरित्र रुप रत्नत्रय को धारण करनेवाले मुनिवर - ये पांचों परमेष्ठी भगवान् प्रतिदिन मंगल करें। संसार में नवकार ही सारभूत मंत्र है। तीनों लोकों में वह अनुपम है। उसके समान अन्य कोई नहीं है। वह समस्त पापों का नाश करता है। राग द्वेषात्मक संसार का, जन्म मरण का, आवागमन का उच्छेद करता है। विषम विष का हरण करता है । वह कर्मों की निर्मूलन करता है, विघ्वस्त करता है। वह सिद्धिप्रदायक है ।मोक्ष के सुख को अविर्भूत करता है तथा केवलज्ञान की प्राप्ति कराता है। जन्म-मरण के जंजाल से मुक्त करानेवाले इस परमेष्ठि मंत्र का बार - बार जप करो, जिसका सत् पुरुष जप करते रहे हैं। ११६ नवकार मंत्र की महिमा और प्रशस्ति के संबंध उपर जो प्राकृत - गाथाओं और संस्कृत श्लोक उद्धृत किये गये हैं, वे जपाभ्यासी साधकों के मन में इस महामंत्र के प्रति श्रद्धा भक्ति का भाव जागृत करते हैं। हृदय में मंत्र - जप के प्रति विशेष आकर्षण उत्पन्न होता है। आंतरिक स्फूर्ति उल्लासित होती है। ऐसी मनोदशा में जो जप होता है, वह बहुत फलप्रद सिद्ध होता है। अभयकुमार चरित में नवकार महिमा - श्री अभयकुमार चरित श्रीचंद्रतिलक उपाध्याय की संस्कृत रचना है। वे श्रीजिनेश्वर सूरि के शिष्य थे। उन द्वारा रचित श्री अभयकुमार चरित १०३७ श्लोक प्रमाण है। इसकी रचना विक्रम संवत् १३१२ में हुई। इसके ग्यारहवें सर्ग में पंचपरमेष्ठी संबंधी वर्णन है। वहाँ नवकार मंत्र की महिमा का वर्णन करते हुए लिखा है - दिन में, रात में, सुख में, दुःख में, शोक में, हर्ष में, क्षुधा में या तृप्ति में तथा गमन में या स्थान में - चलते समय या ठहरते समय परमेष्ठियों का ध्यान करना चाहिए। (११०)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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