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आनंद अनुभूत होने लगता है। देह का हिलना - डुलना बंद हो जाता है। उस तप, जप को अजपाजाप कहा जाता है। अर्थात् जप करने का कोई प्रयत्न नहीं किया जाता ,स्वयं ही जप होने लगता है। जप की एक धारा प्रवाहित होने लगती है। वहाँ मंत्र की अपनी विशेष सार्थकता सिद्ध होती है ।१०५
शब्दब्रह्म रुप मंत्र__ तत्व द्रष्टाओं और विद्वानों ने शब्द पर बहुत सूक्ष्म और गहन, चिंतन, मनन किया। शब्द केवल लिखने, पढ़ने और बोलने की ही वस्तु नहीं है। वह तो ब्रह्म या परमात्म स्वरुप है। मंत्र रुप शब्द की आराधना द्वारा ब्रह्म - परमात्मा की आराधना सिद्ध होती है। भर्तृहरि नामक महान वैयाकरण ने “वाक्यपदिय" नामक ग्रंथ लिखा है।
शब्द तत्व अनादि है, अनंत है। वह सब प्रकार के विकारों से रहित है। संसार की भिन्न - भिन्न रुपों में दृष्टिगोचर होनेवाली, प्रतीत होनेवाली प्रक्रियाएँ शब्दरुपी ब्रह्म का ही विवर्त, विस्तार है।१०६
इस दृष्टि से विचार करें तो नवकार मंत्र शब्द ब्रह्म रुप हैं। उसमें, उसकी साधना में जो तत्पर हो जाता है, जो निष्णात हो जाता है, वह ब्रह्म-स्वरुप हो जाता है। शब्द ब्रह्म रुप श्रुत - ज्ञान का समुद्र है । वह अत्यत गहरा है। उसमें परब्रह्म रुप महारत्न है। नवकार मंत्र के अक्षरों के बिना परब्रह्म का साक्षात्कार नहीं होता। नवकार मंत्र परा, पश्यन्ती, मध्यमा तथा वैरवरी वाणी रुप है। परावाणी शब्दब्रह्म का बीज है। वही परब्रह्म है। नवकार मंत्र के माध्यम द्वारा परावाणी तक पहुँचा जा सकता है। ब्रह्म साक्षात्कार या परमात्मानुभाव किया जा सकता है। ब्रह्म पर ब्रह्म याने आत्मा समझना !
परब्रह्म का साक्षात्कार निर्विकल्प अनुभव द्वारा होता है। जहाँ किसी भी प्रकार का विकल्प नहीं रहता, उसेझे निर्विकल्प कहा जाता है। वहाँ अभिन्नानुभाव की स्थिति होती है। उसके द्वारा कैवल्य का साक्षात्कार होता है। अभिन्नानुभाव का अभिप्राय आत्मा और परमात्मा की अभेदानुभूति है। नवकार मंत्र की आराधना से अभिन्नानुभूति निष्पन्न होती है। ___ डॉ. नेमीचंद जैन ने लिखा है - मंत्र में हम केवल किसी शब्द के अर्थ तक ही सीमित नहीं रहते वरन् उससे काफी आगे निकल आते हैं। अर्थ के आगे शब्द की जो शक्ति है, वह भाषा की सामान्य परिधि में प्राय: नहीं आती । जब हम किसी शब्द का इस्तेमाल सतह पर करते हैं, तब हम उसका बहुत ही मामूली, काम चलाऊ उपयोग करते हैं। चिंतन शब्द का काफी गहरा तल है किंतु इसके आगे भी एक तल है, जिसे अनुभूति कहा जाता है। शब्द जब अभिव्यक्ति से हटकर अनुभूति ही रह जाता है, तभी उसका सम्यक्त्व प्रकट होता है। मंत्र की सत्ता का सूत्रपात तब होता है, जब हमे उसे कंटेनर / बर्तन से आगे कंटेटस् के रुप में
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