SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूक्ष्मत: मानव मन दो भागों में बँटा हुआ है। एक को अंतर्मन या अंतश्चेतना तथा दूसरे को बाह्यमन या बहिश्चेतना कहा जा सकता है। इसमें अंतश्चेतना सर्वदा शुद्धता एवं निर्मलता के साथ सक्रिय रहती है। मनुष्य में असत्य, छल, प्रपंच आदि जो उत्पन्न होते हैं, कार्यशील होते हैं, उसका कारण बहिश्चेतना है, अंतश्चेतना नहीं है। अंतश्चेतना विशुद्धिपरक होती है। बहिश्चेतना पर अज्ञान, अहंकार, काम, क्रोध, मोह आदि का सघन आवरण पड़ सकता है। वह मनुष्य को उसके वैयक्तिक और सामाजिक मूल्यों से नीचे गिरा सकती है। अंतश्चेतना इससे परे विमुख रहती है। उस पर किसी भी प्रकार की विकृतियों का असर नहीं होता और वह भ्रांत भी नहीं होती, क्योंकि उसमें पूर्णत: दिव्यता बनी रहती है। वही मानव को सही अर्थ में मानव बनाये रखती है। आगे वह उसके देवत्व का साक्षात्कार करा सकती है। ९६ ऋषि, महर्षि, साधु-संत, योगी आदि सभी अपने परम लक्ष्य - सिद्धत्व, ब्रह्मत्व या मुक्तत्व को प्राप्त करने हेतु इसी अंतश्चेतना को विकसित करने में संलग्न रहते हैं। मंत्र इस अंतश्चेतना से अनुप्राणित होते हैं। इसलिए इनमें एक विस्मयकारी विशेषता उत्पन्न हो जाती है। मंत्र -शक्ति अपार है। उस शक्ति को बढ़ाने के लिए आसन, प्राणायाम, यम, नियम, ध्यान और धारणा आदि का अभ्यास आवश्यक है। "मंत्र - विज्ञान अने साधना रहस्य " नामक पुस्तक में मंत्र - जप के अधिकार के संबंध में एक घटना का उल्लेख करते हुए लिखा है - एक समय किसी जिज्ञासु साधकों ने श्रीरामकृष्ण परमहंस से प्रश्न किया - महाराज! मंत्र क्या है ? कोई व्यक्ति किसी ग्रंथ आदि में से मंत्र को ग्रहणकर उसका रटन या साधना करे तो क्या उससे उनको लाभ होगा? । रामकृष्ण परमहंस ने उत्तर दिया - नहीं, मंत्र तो तभी फलप्रद होता है, जब योग्य गुरु से योग्य अधिकारी ग्रहण कर उसकी साधना करे ।९७ ___ जप का जितना एकाग्रता के साथ संबंध है, उतना ही गंभीरता के साथ भी है। बीज को जैसे धरती में बोना पड़ता है, उसी तरह णमोक्कार मंत्र के प्रत्येक अक्षर को उच्च भावपूर्वक मन द्वारा प्राणों में पहुँचाना चाहिए । अक्षर में स्थित चैतन्य, प्राण का योग पाकर प्रकट होता है, जिससे जप करने वाले पुण्यशाली की भावना अधिक उज्ज्वल बनती है तथा स्वभावत: सर्वोच्च आत्मभावना संपन्न भगवंतों की भक्ति की तरफ अग्रसर होती हैं।९८ सुप्रसिद्ध जैन लेखक शतावधानी पंडित श्रीधीरजलाल टोकरशीशाह "जिनोपासना "नामक ग्रंथ में नाम- स्मरण का महत्त्व बतलाते हुए लिखते हैं - (१०४)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy