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________________ करोड़ गायोंका दान, समुद्रवलयांकित पृथ्वीका दान, काशी, प्रयाग जैसे अत्यंत पुण्यक्षेत्रोंमें करोड़ों माईल प्रवास तथा यज्ञसहित मेरुतुल्य सुवर्ण का दान - इनकी भगवान के नामस्करण के पुण्यसेभी तुलना नहीं की जा सकती, अर्थात् नामस्मरणका पुण्य इन सबसे बढ़कर है।९३ मंत्र जप के दो रुप : लौकिक और आध्यात्मिक सांसारिक वैभव और उन्नति लौकिक जीवन में अपेक्षित हैं; किंतु वह जीवन का परम साध्य नहीं है। लौकिक समृद्धि का संबंध परिग्रह से है। परिग्रह सांसारिक जीवन में आवश्यक अवश्य हैं किंतु वही सर्वस्व नहीं है । जीवन का लक्ष्य नहीं है। सांसारिक उपलब्धियों को लक्ष्य में रखकर मंत्राराधना करना लौकिक पथ है। वह आराधना का वास्तविक ध्येय नहीं हो सकता क्योंकि सांसारिक वैभव, संपत्ति अधिकार एवं सत्ता सभी नश्वर है । इसलिए प्रबुद्ध पुरुष को मंत्र का आध्यात्मिक दृष्टि के साथ सदुपयोग करना चाहिए । जीवन का अंतिम लक्ष्य तो आत्मा के नितांत शुद्ध स्वरुप को प्राप्त करना है। इसलिए नवकार मंत्र की सबसे अधिक उपयोगिता आत्मकल्याण की सिद्धि है।९४ साधुओं के लिए नवकार मंत्र की आराधना अत्यंत समुपादेय हैं क्योंकि उनके लिए तो सांसारिक वैभव, धनादि का कुछ भी महत्त्व नहीं है। वे तो अपरिग्रही होते हैं। उनके लिए परिग्रह निश्चित रुप से एक विघ्न या बाधा रूप हैं, इसलिए उनकी साधना सर्वथा आध्यात्मिक होती है । गृहस्थों को भी लक्ष्य ऐसा ही रखना चाहिए। लौकिक सिद्धि तो धर्माराधना से बिना चाहे भी मिलती है क्योंकि आराधना के अंतर्गत जो शुभात्मक पुण्य- संचय होता है, उससे सांसारिक सुख प्राप्त होते ही हैं। मंत्र और अन्तर्जागरण ___ अंतश्चेतना से अनुप्रणित होकर ही मंत्र फलद्रुप, समर्थ तथा सिद्ध होता है। मानव शरीर कितना रहस्यमय हैं, सैंकड़ों, हजारों वर्षों से वैज्ञानिक, चिकित्सक, योगी एवं साधक इसके रहस्यों को ज्ञात करने का प्रयत्न कर रहे हैं किंतु अभी तक इस रहस्य को कोई कोई ही जान सके हैं। फिर भी मानव का वह जिज्ञासामूलक प्रयत्न आज भी गतिशील है, जो भावी पीढ़ी के लिए हितप्रद सिद्ध होगा। कहा गया है - मंत्र शब्द का मूल अर्थ है - गुप्त परामर्श । श्रद्धा से जब मंत्राक्षर अंतर्दशन में प्रवेश कर, एक दिव्य हलचल उत्पन्न करते हैं, तब ज्वलंत, जीवंत और जागरित रुप चमक उठता है और दिव्य रुप होकर सिद्धि में परिणत हो जाता है। ९५ (१०३)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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