________________
उकार होते हैं किंतु यहाँ तो कूट मंत्र में बहुत अक्षर हैं। इसलिए किस प्रकार लगाया जाये ? ऐसे होते हुए भी विशिष्ट ज्ञानी पुरुष क्षकार ( क + ष् + अ ) आदि शब्दों में कार प्रत्यय लगाते हैं । इसका कारण यह है कि इन कूट मंत्रों में अधिक अक्षर दिखाई देते हुए भी वस्तुत: उनमें एक ही अक्षर मंत्र स्वरुप होता है। बाकी के अक्षर उसके परिवारभूत होते हैं । इसलिए ऐसे कूट मंत्रों को भी एकाक्षरी मंत्र ही मानकर विशिष्ट विद्वान 'कार' प्रत्यय लगाते हैं । उसी न्याय से अर्हं शब्द अनेकाक्षरी दिखाई देता है, तो भी उसमें मंत्राक्षर तो एक 'ह' होने के कारण हम् “अक्षराणि” के रुप में बहुवचन का उपयोग नहीं कर सकते । अक्षरम् के रुप में एक वचन का ही उपयोग किया गया है ।
एक प्रश्न उपस्थित होता है । कूट मंत्र में अनेक अक्षर होते हुए भी मंत्र तो एक अक्षर जितना ही है, तो बाकी के अक्षरों की क्या आवश्यकता है ? इसका समाधान करते हुए कहा गया है.
1
परिकार - परिवार सहित वर्ण ही मंत्र का कार्य कर सकते हैं । अकेला वर्ण कोई भी कार्य नहीं कर सकता। इसलिए परिकर या परिवार के रुप में अक्षरों की आवश्यकता है । ९० मंत्र की उपयोगिता
जैसे ही हम शब्द का उच्चारण करते हैं, वैसे ही वातावरण में एक आंदोलन तथा उत्तेजन उत्पन्न होता है । उसके अनुसार हमारा मन भावोन्दोलित होता है । हम पुनः पुनः जिस भाव को याद करते हैं, उसी के अनुरुप भाव हमारे अंत:करण में उत्तरोत्तर प्रस्फुटित होते रहते हैं। मंत्र के साथ यही तत्व जुड़ा हुआ है, किंतु एक बात विशेष रुप से ध्यान में रखनी होगी। को सुयोग्य गुरु से शुद्धतापूर्वक प्राप्त किया जाये। तभी वह अनुभव सिद्ध होगा, प्रभावशाली और कार्यकारी होगा ।
मंत्र विद्या के सिद्धांतानुसार प्रत्येक अक्षर एक गुप्त शक्ति का संवहन करता हैं। अक्षरों से संबद्ध विद्या को मातृका विद्या कहा जाता है। महापुरुष अपनी साधनाद्वारा, योगाभ्यास द्वारा अपनी संकल्प शक्ति को एकाग्र करते हैं, तथा अमुक शब्दों में आरोपित करते हैं । इसके परिणाम स्वरुप उन शब्दों के अक्षरों में सहज रुप से वह शक्ति प्रतिष्ठापित हो जाती है । उन परस्पर सम्मिलित भिन्न- भिन्न अक्षरों के सामीप्य के कारण शक्ति बहुप् करती जाती है।९१
मंत्र-जप का अभ्यास रजोगुण और तमोगुण से उत्पन्न मालिन्य को दूर करता है । इड़ा और पिंगला नाड़ी को स्थिर करता है । सुषुम्ना नाड़ी का यह उद्घाटन करता है। इससे प्राण शक्ति जागृत होती हैं। इसके कारण मंत्र शक्ति उर्ध्वगामिनी बनती है। इससे अनाहतनाद का अनुभव होने लगता है। यह मंत्र शक्ति के चैतन्य का उन्मेष है । ९२
(१०२)