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________________ सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चरित्र में विभ्रांत रहना अयोग्य मार्ग है। मंत्र जीव को रत्नत्रय की आराधना की ओर प्रवृत्त करता है।८७ मंत्र बहुत व्यापक है। यह समग्र ब्रह्माण्ड - लोक मंत्र से आबद्ध है। जीवन की प्रत्येक गतिविधि मंत्र द्वारा संचालित है। व्यक्ति का छोटे से छोटा कार्य मंत्र से संबद्ध है। प्राणी के अस्तित्व के साथ मंत्र का अस्तित्व जुड़ा हुआ है। इस ब्रह्माण्ड का अणुअणु मंत्र से संपृक्त है। जीवन को सम्यक् ज्ञान करने के लिए, समझने के लिए मंत्र को तत्व को, रहस्य को जानना, प्रत्येक मानव का सबसे पहला कर्तव्य हैं।८८८ यहाँ मंत्र की ब्रह्माण्ड तक सर्वव्यापकता का विद्वान् लेखक ने जो वर्णन किया है, वह विशेष रुप से मानव की मननात्मक सूक्ष्म प्रक्रिया से संबद्ध है। मनन की अंतर्व्याप्ति सर्वत्र स्वीकार की जाती है। कहा गया है -आम्नाय - अपनी विशिष्ट धार्मिक, आध्यात्मिक परंपरा के अनुसरण से, अत्याधिक विश्वास से तथा तन्मयता से मंत्र की शुद्धि में बहुत सहायता मिलती है। मंत्र में शब्द, अर्थ और प्रत्यय का समावेश है, जिनका परस्पर संबंध हैं । शब्द से अर्थ ज्ञात होता है। जो पदार्थ सामने नहीं है, वह भी शब्द के माध्यम से मानसिक आकति के रुप में उपस्थित हो जाता है। पद का पदार्थ के साथ वाच्यवाचक भाव संबंध है। पद वाचक है, पदार्थ वाच्य है। जब पद का उच्चारण करते हैं, उसे स्मरण करते हैं या उसका ध्यान करते हैं तो उस द्वारा वाच्य पदार्थ की प्रतीति होती हैं। शब्द के अनुसंधान से अर्थ का अनुसंधान तथा अर्थ अनुसंधान से तत्व का अनुसंधान होता है । तत्व के अनुसंधान से आत्म स्वरुप का अनुसंधान होता है। मंत्र की यह तात्विक प्रक्रिया है।८९ मंत्र के भेद ____ मंत्र दो प्रकार के हैं - कूट तथा अकूट । जो संयुक्ताक्षर युक्त होता है, उसे कूट कहा जाता है । जो संयुक्ताक्षर युक्त नहीं होता, उसे अकूट कहा जाता है । कूट मंत्र में अक्षर अधिक होते हैं, किंतु उनमें मंत्रका तो एक ही अक्षर होता है। बाकी के अक्षर मंत्र के परिकर रुप या परिवार रुप होते हैं। कूट मंत्र में बहुत अक्षरों के होते हुए भी एक ही अक्षर के मंत्र रुप होने से “वर्णाव्यायात् कारः” इस सूत्र से क्षकार, ॐकार आदि शब्दों को विशिष्ट विद्वान सिद्ध करते हैं, क्योंकि इस सूत्र का अर्थ यह है कि जो एक - एक वर्ण होता है, तो उसके पीछे (तथा अव्यय के पीछे)कार प्रत्यय लगाया जाता है। जैसे - अ, इ, उ के पीछे कार लगाने से आकार, इकार, (१०१)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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