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कर्मों के फल की आसक्ति का त्याग कर देता है, सदा आत्मा तप्त और आत्माश्रित रहता है, वह कर्म करने में प्रवृत्त रहता हुआ भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता।८१
इस तथ्य को समझता हुआ साधक अनासक्त भाव से कर्म करें। इससे संबंधित ज्ञान को आध्यात्मिक दृष्टि से अविद्या कहा है।
___ जैन दर्शन में भी ज्ञान और अज्ञान दो शब्दों का प्रयोग हुआ है। ज्ञान उसे कहा जाता है, जिसके साथ सम्यक् दृष्टि, सत्यनिष्ठा या श्रद्धा का संयोग हो । जहाँ सम्यक्दृष्टि नहीं हो, वहाँ ज्ञान को अज्ञान कहा जाता है । वहाँ अज्ञान शब्द अभाव मूलक नहीं है। लोक - निर्वाह मूलक है अथवा आत्मनिष्ठाविहीन केवल भौतिक कर्मों के साथ जुड़ा है। ___इस प्रकार भारतीय चिंतनधारा में जीवन के बाह्य और आंतरिक सभी पक्षों पर बहुत गंभीर चिंतन, मनन हुआ, जिसके परिणाम स्वरुप विभिन्न विषयों से संबंद्ध विशाल वाड्.मय का सर्जन हुआ, जो युग - युग तक मानव जाति को सत्यान्मुख प्रेरणा देता रहा और आज भी दे रहा है। इसका महान् लक्ष्य मानव को परम शांति प्रदान करना है। उसे भारतीय विद्या (Indology) के नाम से अभिहित किया जाता है।
भारतीय विद्या में अध्यात्म, धर्म, दर्शन, इतिहास, पुराण, व्याकरण, काव्य, कोश, न्याय, आयुर्वेद, ज्योतिष, भूगोल, खगोल, गणित आदि अनेक विषय समाविष्ट हैं। इनका ज्ञान व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के विकास में सहायक बने,आत्मा के कल्याण, प्राणीमात्र के श्रेयस और सुख का हेतु बने, यह वांछित है। इनका ज्ञान केवल भौतिक जीवन के निर्वाह तक ही सीमित न रह जाये । इस पर यहाँ के ज्ञानी पुरुषों ने बहुत जोर दिया।
मंत्र की परिभाषा
___ गहन चिंतन, मनन, निदिध्यासन एवं स्वानुभूति के परिणाम - स्वरुप स्वल्पतम शब्दों में निक्षिप्त सूक्ष्मतम, अतिगंभीर एवं रहस्यमय भाव मंत्र कहा जाता है।
मंत्र शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए लिखा गया है। जो मनन मात्र से आराधक का त्राण - रक्षण करे, वह मंत्र है।८२
कोई योद्धा जब संग्राम में जाता है तो वह अपने शरीर पर कवच धारण करता है। वह लोह-निर्मित सुदृढ़ कवच उसे शत्रुओं द्वारा किये जाने वाले आघातों से बचाता है। मंत्र साधक के लिए एक अक्षय - कभी नहीं टूटने वाला कवच है। वह सब प्रकार के विघ्नों, बाधाओं और परिषहों से साधक को बचाता है।
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