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रही है। यहाँ के मनीषियों और विद्वानों ने केवल अपने चिंतन को बाह्य जीवन तक ही सीमित नहीं रखा, ज्ञान की गहराई में जाने में उनकी विशेष रुचि और प्रवृत्ति रही। संस्कृत में एक बहुत प्रसिद्ध श्लोक है -
आहार-निद्रा-भय- मैथुनानि, सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् । धर्मो ही तेषा मधिको विशेषः ।।
धर्मेण हीना: पशुभि: समानाः । इस श्लोक के अंतिम दो चरणों को इस प्रकार भी बोला जाता है।
ज्ञानं हि तेषामधि विशेष: ,
ज्ञानेन हीना: पशुभि: समानाः ॥ ___ आहार, निद्रा, भय, सांसारिक भोग आदि तो पशुओं और मनुष्यों में एक समान हैं। मनुष्यों में धर्म, अध्यात्मिक ज्ञान और साधना की विशेषता है। पशुओं में वैसा नहीं होता।जो मनुष्य इस गुण से हीन है, वे पशुओं के तुल्य हैं। आहार, भय, आदि को संज्ञायें कहा हैं। संज्ञायें प्राणियों की स्वाभाविक देहगत वृत्तियों की सूचक है। भारतीय प्रबुद्ध मानस सदैव इस उदात्त भाव से प्रेरित रहा । इसलिए ज्ञान, विज्ञान की विविध शाखाओं में भारतीय मनीषी - बुद्धि ने जो नवभिनव सर्जन किया, वह संसार में महत्त्वपूर्ण हैं।
ईशावस्योपनिषद् में विद्या और अविद्या - इन दो शब्दों का प्रयोग हुआ है। वहाँ अविद्या शब्द का अर्थ विद्या का अभाव नहीं है किंतु उस ज्ञान को अविद्या कहा गया है, जो सांसारिक कर्ममय जीवन से संबंधित है। उसके विपरीत विद्या वह ज्ञान है, जिससे मनुष्य अपनी आध्यात्मिक शक्तियों का विकास कर नर से नारायण बन सकता है। विद्या और अविद्या का जीवन में समन्वय होना चाहिए। जो इन दोनों को समन्वित करता है, वह अमृत का आस्वाद करता है, परब्रह्म परमेश्वर को प्राप्त कर लेता है।७९
उपनिषद्कार का यह कथन है कि मनुष्य विद्या और अविद्या दोनों के रहस्य को समझें । लौकिक कर्ममय जीवन के लिए उस ज्ञान की आवश्यकता है, जिससे जीवन के कार्य भलिभाँति चल सकें । सांसारिक अवस्था में उनका त्याग नहीं किया जा सकता, क्योंकि जब तक शरीर विद्यमान है, तब तक कर्म करना आवश्यक है। गीता में भी कहा गया है - कोई भी अकर्मकृत - कर्म न करता हुआ नहीं रह सकता। प्रकृति के गुणों के परिणाम स्वरुप उसे कर्म करना ही होता है।८०
कर्म का सर्वथा परित्याग नहीं किया जा सकता । गीता में यह भी बताया है कि जो
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