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________________ होता है। नवकार मंत्र की साधना से मिला हुआ वैराग्य ज्ञान से आधारित रहता है और इसलिए वह अटल और स्थिर है। मनुष्य जैसे विचार होते है वैसे उसका बाह्य व्यवहार भी होता है। अशुभ विचार मनुष्य को दुर्जन, अन्यायी और दूराचारी बनाते हैं और शुभ विचार उसे धर्मप्रिय, सदाचारी परोपकारी और सज्जन बनाते हैं और शुद्ध विचार जीवात्माको परमात्मा बनाता है। नवकार मंत्र की और साधु पद की अलग - अलग ग्रंथों में अलग - अलग परिभाषा प्राप्त होती है। उसका समीक्षण करके प्रस्तुत प्रकरणमें देने का प्रयत्न किया गया है। प्रकरण ३ नवकार मंत्र का विशेष विश्लेषण और विश्वमैत्री इस प्रकरण में नवकार मंत्र और शुभोपयोग और शुद्धोपयोग, षड़ावश्यक और नवकार मंत्र, नवकार मंत्र में चार भावनाओं का समन्वय गुण प्रधान जैन धर्म, नवकार महामंत्र और नवतत्व, नवकार मंत्र और शारीरिक, मानसिक स्वस्थता, नवकार मंत्र से लेश्या विशुद्धि, रंगविज्ञानके आधार पर नमस्कार मंत्र का निरुपण, नवकार की सिद्धि इह लौकिक और पारलौकिक दृष्टि से नवकार मंत्र का निरुपण आदि विषयों का विश्लेषण प्रस्तुत प्रकरणमें किया गया है। 'नवकार मंत्र का विशेष विश्लेषण और विश्वमैत्री' इस प्रकरणमें मैत्री आदि चार योग भावना का विवेचन है। वैराग्य वर्धक और साधक को परमशांति, परमसुख का उत्तम अनुभव करानेवाली, ध्यान का उत्कर्ष साधनेवाली, मैत्री आदि चार भावनाओं का निरुपण किया गया है । इन चार भावना के चिंतन का मुख्य उद्देश यह है कि - व्यक्ति में केवल वैराग्य भावना जागृत होना इतनी ही पर्याप्त नहीं है परंतु उस भावना के आचरण से उनमें इंद्रिय संयम के साथ मनका संयम भी आना चाहिये। और देहासक्ति से मुक्त होकर, योग और ध्यान के द्वारा चित्त विरोध करके परमशांति प्राप्त करना इस प्रकार के उत्तम आदर्श से मैत्री आदि चार भावना का विवेचन किया गया है। नवकार मंत्र के चिंतन के स्वरूप बोध होने पर निर्वेद भाव, अर्थात् संसार का अनादि काल से जो राग आता है उस पर उदासीनता होती है। संसार के प्रति होनेवाला राग, सांसारिक पदार्थों के प्रति आसक्ति, उसमें सुख बुद्धि राग (आसक्ति) है। जन्म-मरण के चक्कर में जीव को फिराता है इसलिए सर्व प्रथम राग रहित होना आवश्यक हैं । वैराग्यभावही
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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