________________
चित्त की मलीनता एवं दोषों को दूर कर निर्मलता को प्रगट करता है। चित्तकी निर्मलता नमस्कार महामंत्र से सहज सिद्ध होती है। ____ जैन परंपरा या धर्मका अंतिम लक्ष्य आत्मस्वरूपोपलब्धि है। उसका मार्ग कृत्स्नकर्म-क्षय है।६७ समग्र कर्मोंका क्षय या नाश हो जाने से आत्मा की वैभाविक दशा अवगत हो जाती है।
भावमंगला श्री नवकार :
मंगलके मुख्य तीन अर्थ शास्त्रकारोने दर्शाये है। १) हित का साधन २) धर्मका उपादान ३) संसार के परिभ्रमण का मूल से नाश। सुखसाधक एवं दुःखनाशक पदार्थ को मंगलरूप मानने की रूढी, संसारमें प्रसिद्ध है। कष्ट निवारण अथवा सुख प्रदान करनेमें समर्थ पदार्थ भी मंगलरूप माने जाते है। जैसे दही, अक्षत, कुमकुम, श्रीफल, स्वस्तिक आदि पदार्थ जगतमें मंगलरूप गिने जाते है। ___अहिंसा, संयम, एवं तपरूप धर्म तथा स्वाध्याय, ध्यान-ज्ञानादि गुण ये सभी सुखसिद्धि के निश्चित साधन हैं, अत: ये भाव मंगल गिने जाते हैं। द्रव्य मंगलसे भावमंगलका मूल्य बहुत अधिक है। धर्म उत्कृष्ट मंगल है। उस धर्म का लक्षण है - अहिंसा, संयम और तप । जिसका मन सदा धर्म में लीन रहता है, उसे देव भी नमस्कार करते है। ६८
जैन शास्त्रके भाव मंगलोंमें पंचमरमेष्टि नमस्कार को प्रधान मंगल कहा गया है। उसके मुख्य दो कारण हैं। १) श्री पंचपरमेष्टि नमस्कार स्वयंगुण स्वरूप है। २) गुणों के बहुमान स्वरूप है। पंच परमेष्टि नमस्कार सभी सद्गुणों में शिरोमणिभूत विनयगुणके पालन स्वरूप है। विनय मोक्षका मूल है, विनय के बिना ज्ञान नहीं, ज्ञान के बिना दर्शन नहीं, दर्शन के बिना चारित्र नही, एवं चारित्र के बिना मोक्ष नहीं ।६९ ।।
योग्य के प्रतिविनय सविनय है। पंचमरमेष्टि नमस्कार करने योग्य व्यक्तियों की सर्वोत्कृष्टता होने के कारण उन्हें किया गया नमस्कार सभी विनयोंमें प्रधान विजय स्वरूप बन जाता है। प्रधान, विनयगुण के पालन से यथार्थ ज्ञान, यथार्थ दर्शन, श्रेष्ठ चारित्र एवं प्रधान सुख की प्राप्ती होती है। श्री पंचपरमेष्टि नमस्कार में ये तीनों वस्तुएं नीहित है। मन से नमस्कार का भाव, वचन से नमन का शब्द एवं काया से नमन की क्रिया होनी चाहिए। इस प्रकार ज्ञान, शब्द एवं क्रियाख्य, विविध क्रिया युक्त श्री पंचपरमेष्टी नमस्कार पापध्वंस एवं कर्मक्षय का अनन्य कारण बन जाता है। अत: वह सर्वोत्कृष्ट भाव मंगलस्वरूप है।
(९१)