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परमेष्ठि भगवान के प्रति राग एक ही समयमें एक ही चित्तमें संभव नही हो सकते है। एक जड़ है तो दूसरा चेतन है। जड़ के एवं चेतनके धर्म अलग अलग है। अंध:कार और प्रकाश दोनों एक ही स्थान पर साथ साथ नहीं रह सकते हैं। उसी प्रकार एक ही चित्तमें विषयों का राग एवं परमेष्ठियों के प्रति भक्तिराग एक ही कालमें टीक नहीं सकती।६५ परमेष्ठियों के प्रति भक्तिराग उत्पन्न करना हो तो विषयों के प्रति वैराग्य की साधना करनी चाहिये। वैराग्य को साधने का उपाय विषयों की नश्वरता बार बार चिंतन करना है। सोचना सरल है करना सरल नहीं। वासना इतनी गहरी होती है कि - वह चिंतन से दूर या नष्ट नहीं होती बल्कि अनेक बारके अभ्यास से दृढ़ बनी हुई वैराग्य भावना उसे दूर कर सकती है। . __ पाँच परमेष्ठियों में स्थित पाँच महाव्रत, पाँच आचार, सम्यक्त्व के पांच भूषण एवम् धर्म सिद्धि के पाँच लक्षण, मैत्री आदि भाव, क्षमा आदि धर्म जो साधारण रीति से अपने परिचित हैं, उन्हें पांच-पांच की संख्यामें योजित कर पंच परमेष्ठियों का विशुद्ध प्रणिधान हो सकता है, जैसे कि - अरिहंतो में स्थित अहिंसा, सिद्धोंमें स्थित सत्य, आचार्यों में स्थित अचौर्य, उपाध्यायोंमें स्थित ब्रह्मचर्य एवं साधुओंमें स्थित अकिंचनता इत्यादि ।
अरिहंतो में अहिंसा के साथ सत्य आदि गुण भी निहित है वैसे ही सिद्धों में, आचार्यो में, उपाध्यायों में एवम्, साधुओं में भी ये गुण निहित हैं, तो भी ध्यान की सुविधा के लिए प्रत्येक में एक-एक गुण अलग मानकर चिंतन करने से ध्यान सुदृढ बनता हैं । इसी प्रकार सभी विषयों में इसी क्रम का पालन करना चाहिए।
___ इस प्रणिधानपूर्वक किया नमस्कार भाव नमस्कार गिना जाता है एवं उसके फलस्वरूप जीव को बोधि लाभ, स्वर्ग के सुख तथा परंपरा से सिद्धि गति से अनंत एवं अव्यबाध सुख मिल सकते हैं।
“जिन सासणस्स सारो, चउदस्स, पुव्वाण जो समुद्वारो क
जस्स मणे नवकारो, संसारो तस्स किं कुणई।" जिनसाशन का सार एवं चौदह पूर्वका सार नवकारमंत्रा जिसके मनमें निवास करता हैं ऐसी व्यक्ति को संसार के उपद्रव किसी भी प्रकार की पीड़ा नहीं पहुँचा सकते हैं।६६ जिस मनुष्य के अंतरमें श्री नमस्कार महामंत्र रमण करता हो, जिसमें भाव से उसकी शरण स्वीकार की हो उसे इस संसार के दु:ख लेशमात्र भी स्पर्श नही कर सकते । नमस्कार महामंत्ररूप नौकामें बैठकर आत्मा निर्विघ्नरूप से संसार सागर पार पहूँच सकती है।
नवकारमंत्ररूपी केसरी सिंह जिसके चित्तमें क्रीड़ा कर रहा हो, उसे संसार के उपद्रवरूप हाथी कुछ भी पीड़ा नहीं पहुंचा सकते,चारों गतियों के भयानक दु:ख उससे दूर दूर भागते हैं। चौदह पूर्वधर महर्षि भी जीवन की अंतिम बेला में जब शारीरिक शक्ति क्षीण हो जाती है एवं
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