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हमेशां के लिए दूर कर देती है। नमस्कार को भाव नमस्कार बनाने के लिए नमस्कार की क्रियामें चित्त के भाव को जगाने हेतु या सरलतम युक्ति है।
श्री षोडशक आदि ग्रंथों में धर्म सिद्धि के पाँच लक्षण दर्शाये गये है। पहला लक्षण औदार्य, दूसरा धैर्य, तीसरा तीनों कालके पाप की जुगुप्सा, चौथा लक्षण निर्मल बोध और पाँचवा लक्षण जनप्रियत्व है। श्री अरिहंतों का अनुपम औदर्य उनकी धर्मसिद्धि को सूचित करता है। सम्यक्त्व का प्रथम लक्षण उपशम अर्थात अपराधीके प्रति क्रोधका अभाव है। श्री अरिहंतों में मैत्री, प्रमोद, कारूण्य और माध्यस्थ सम्यक्त्व की ये चार भावनाएँ पराकाष्ठा को प्राप्त हुई है। श्री अरिहंतों की अहिंसा सर्वलोकव्यापी है। समस्त जीवराशिको संग्रहित करनेवाली है।
अरिहंतो की तरह सिद्धभगवान के गुणों के प्रणिधानपूर्वक होनेवाला नमस्कार, गुण बहुमान के भाववाला होता है। अत: वह भी अचिंत्य शक्तियुक्त है। एवं कर्मवान को जलाने के लिए दावानल तुल्य बनता है। इस प्रकार होनेवाला भावनमस्कार हमारे लिए परम उपकारी बन सकता है। भाव नमस्कार के बिना अनंत बार ग्रहण किये हुए श्रमण लिंग भी द्रव्यालिंग बन जात हैं। अर्थात् उनकी साधना सार्थक नहीं होती।
नक्षत्रमालामें जिस प्रकार चंद्रमा सभी का स्वामी है, वैसे ही सभी प्रकार के पुण्य समूह में भाव नमस्कार मुख्य है। भावनमस्कार रहित जीवने अनंतबार द्रव्यलिंग ग्रहण किये और छोड़े पर कार्यसिद्धि नहीं हुई।६४
कार्यकी सिद्धि के लिए नमस्कार आवश्यक है एवं वह गुणबहुमान के भाव में में आता है। अत: श्री अरिहंतादि परमेष्ठियोके एक-एक विशिष्ट गुणको प्रधान बनाकर उसके प्रणिधान पूर्वक नमस्कार का अभ्यास करना आवश्यक है।
श्री पंचपरमेष्ठियों को किया जानेवाला नमस्कार पापी से पापी एवं अधम से अधम जीव को भी पवित्र एवं उच्च बना देता है। श्री अरिहंत पद, श्री सिद्धपद, श्री आचार्यपद, श्री उपाध्याय पद एवं श्री साधुपद में स्थित निर्मल आत्माएँ जगत् पर जो उपकार करती हैं , वैसा उपकार दूसरे किसी भी स्थान पर स्थित आत्माएँ नहीं कर सकती। देवेंद्र अथवा चक्रवर्ती वासुदेव, प्रतिवासुदेव अथवा बलदेव, राजा-महाराजा अथवा राष्ट्रपति, विश्व की भौतिक समृद्धि के इन सभी अधिपतियों के उपकार, आध्यात्मिक समृद्धि के स्वामी श्री पंचपरमेष्ठियों के उपकार के समक्ष नगण्य है, तुच्छ है एवं तृणतुल्य है। इसी कारण इन परमेष्ठियों को किया जानेवाला भावनमस्कार सभी पापोंका समूल नाश करनेमें समर्थ है।
शरीरमें पांच इंद्रिय हैं, एवं लोक में परमेष्ठि भगवान भी पांच है। प्रत्येक इंद्रियों का एक एक विषय हैं, एवं उस विषयके संबंधमें जिन को अनादि कालसे अनुराग है, पर पंचपरमेष्ठि भगवन् के प्रति अनुराग को प्रयत्न पूर्वक प्राप्त करना पड़ता है। विषय संबंधी राग एवं