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________________ नामस्मरण से सुख याने निजस्वरूपानंद की प्राप्ति होती है, और दु:ख याने जन्म, जरा और मृत्यु का नाश होता है। कबीरदासजी कहते है कि साई का, भगवान का नामस्मरण से अंतमें ही उसमें लीन हो जाते है।६० .. नवकार महामंत्र का महत्त्व मोक्षमार्ग की आराधना के लिए मंत्राधिराज महामंत्र उत्तमोत्तम है। पंचपरमेष्टि भगवंत सर्व उत्तमोत्तम द्रव्य क्षेत्र, काल और भावमें व्यापक है। अत: मुक्ति पद की आराधना, साधना और उपासना के लिए पंचपरमेष्टि भगवंत की भक्ति करनी चाहिए।६१ ___ मनवचन एवं काया तीनों से वासित नमस्कार की क्रिया को ही शास्त्रों में 'नमस्कार पदार्थ' कहा है। श्री नमस्कार नियुक्तिमें पंचपरमेष्टि के गुणोंमे परिणमन, वचन से उनके गुणों का किर्तन एवं काया से सम्यक् विधियुक्त उन्हें प्रणाम ही नमस्कार पदार्थ है। अर्थात् नमस्कार पद का यही वास्तविक अर्थ है ।६२ सच्चा नमस्कार करने के लिए काया से प्रणाम वाणी से गुणों के उच्चारण के साथ मनका परमेष्टी के गुणोंमे परिणमन ही आवश्यक है। अरिहंत भगवान के नमस्कार के पीछे जिस प्रकार मार्ग हेतु है, वैसे ही सिद्ध भगवानके नमस्कार के पीछे ‘अविनाश' हेतु है। संसार की सभी वस्तुएँ विनाशी है, एक सिद्धपद ही अविनाशी है, अविनाशी पद की सिद्धि हेतु सिद्ध भगवान को किया हुआ नमस्कार सहेतुक नमस्कार है। इसीसे वह भाव नमस्कार बन जाता है। किसी भी क्रिया के भाव क्रिया बनाने के लिए शास्त्रों मे चित्त को आठ प्रकार को भाव क्रिया बनाने के लिए शास्त्रों में चित्तको आठ प्रकार के विशेषणों से विशिष्ट बनाने हेतु आदेश दिया गया है। श्री अनुयोगद्वार सूत्रमें भाव क्रिया का लक्ष्ण बताते हुए कहा गया है कि - साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका उभयकाल आवश्यक प्रतिक्रमण करते है। यह आवश्यक मनको अन्यगामी न बनाकर एकनिष्ठ होकर करें तो यह भाव क्रिया है । इस प्रकार किया गया आवश्यक भाव आवश्यक है।६३ ___ भद्रबाहु स्वामी कहते है कि -"मार्ग, अविप्रणाश, आचार विनय एवं सहाय - इन पांच हेतुओं के लिए मैं श्री पंचपरमेष्ठी भगवानको नमस्कार करता हूँ।” सहेतु क्रिया ही फलवती होती है। हेतु अथवा संकल्पविहीन कर्म फलीभूत नहीं होता। श्री अरिहंत परमात्मामें मोक्षमार्ग की आद्यप्रकाशता के साथ विशुद्ध सम्यक्दर्शन है एवं यह सम्यकदर्शन पाने की जितनी सामग्री चाहिए उतनी एक साथ उनमें स्थित है। श्री अरिहंतों का ज्ञान, वैराग्य, धर्म, ऐश्वर्य आदि एक एक वस्तु ऐसी है, कि उसका प्रणिधान करनेवाली आत्मा के भीतर सम्यकत्व् का सूर्य उदित करती हे, मिथ्यात्व का घोर अंध:कार (८७)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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