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इच्छा की पूर्ति नही होती किंतु इच्छा का स्रोत ही सूख जाता है। जहाँ सारी इच्छाएँ समाप्त होती है, सारी कामनाएँ समाप्त हो जाती है, जहाँ व्यक्ति निष्काम बन जाता है और कामना के धरातलसे उपर उठ सकता है, वहाँ उसका अर्हत् स्वरूप जागता है। यही नमस्कार महामंत्र का प्रयोजन है और इसीलिए यह केवल नवकारमंत्र ही नहीं “महामंत्र” है।५५ ।
___ नमस्कार महामंत्र से भी ऐहिक कामनाएँ पूरी होती हैं, किन्तु यह उसका मूल उद्देश्य नही हैं, मूल प्रयोजन नहीं है। उसकी संरचना केवल अध्यात्म जागरण के लिए हुई है, कामनाओ की समाप्ति के लिए हुई है। यह एक तथ्य है कि - जहाँ बड़ी उपलब्धि होती, है, वहाँ आनुषंगिक रूपमें अनेक छोटी उपलब्धियाँ भी अपने आप हो जाती है। छोटी उपलब्धि में बड़ी उपलब्धि नहीं होती किंतु बड़ी उपलब्धि में छोटी उपलब्धि सहज हो जाती है। कोई व्यक्ति सरस्वतीके मंत्र की आराधना करता है तो उसका ज्ञान बढ़ेगा। कोई व्यक्ति लक्ष्मी के मंत्र की आराधना करता है तो उसका धन बढ़ेगा किंतु अध्यात्मका जागरण या आत्मा का उन्नयन नहीं होगा, क्यों कि छोटी उपलब्धि के साथ बड़ी उपलब्धि के लिए चलता है, रास्ते में उसे छोटी - छोटी अनेक उपलब्धियाँ प्राप्त हो जाती है ।५६
नवकार मंत्र - आभ्यंतर तपः
। जैनदर्शन में तप के मुख्य दो प्रकार बताये गये है। १) बाह्य तप और १) अभ्यंतर तप ५७ प्रत्येक के छः छः प्रकार दर्शाये गये हैं। जीव को उत्तम स्थान प्राप्त कराने के लिए ये प्रकार दिये गये हैं। वास्तवमें तो आत्माको परमात्मा बनाने के लिए दोनों प्रकार के तप अनिवार्य है। दोनोके संगमसेही सिद्धावस्था की प्राप्ति हो सकती है। तप जैन धर्म का प्राण है। प्रत्येक जैन की यह मनीषा होती हिँ कि किसी न किसी प्रकार तप की आराधना अवश्य होनी चाहिए। चरम तीर्थंकर भगवान महावीर को सारे विश्वमें तपके सर्वोत्तम प्रणेता कहा जाता है।
अभ्यंतर तप का एक भेद 'विनय' है । जैन धर्म में विनय का बहुत विशद और बहुविध निरूपण उपलब्ध होता है। विनय को किसी एक परिभाषा या एक अर्थ में बांध पाना संभव नहीं हैं। 'विनय' का अर्थ यदि भक्ति-बहुमान करे तो ज्ञान -दर्शन-चारित्र आदि के प्रति भक्ति और बहुमान प्रदर्शित करता है। शरीर से गुरूजनों की भक्ति करें और विवेकपूर्वक की गई समूची शारीरिक प्रवृत्तियोंको विनय कहते है।
आत्मशुद्धि, ज्ञानप्राप्ति, सद्गुणप्राप्ति, गुरूभक्ति एवं गुणीजनों के सम्मान के लिए