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________________ करते हैं। यह सब करते हुए भी उनका मुख्य लक्ष्य आत्मकल्याण होता हैं । वे अपनी संयम मूलक साधना में उत्तरोत्तर अग्रसर होते हुए उर्ध्वगामी बनते जाते हैं । राग-द्वेष, मोह आदि का वर्जन करते हुए कर्म क्षय करते जाते हैं। ऐसे संत पुरुष, हम जान पाये या न जान पायें, सारे लोक में भिन्न-भिन्न स्थानों पर अधिक नहीं तो कुछ मिल सकते हैं । वे सभी नमस्कार के योग्य हैं । साधु यह नहीं चाहते कि लोग उनको नमस्कार करें, वंदन करें। ऐसा चाहने की उन्हें आवश्यकता भी नहीं होती । वे तो अपने आप में परितुष्ट होते हैं । उनको नमस्कार करने में लोगों का विनय और कृतज्ञता का भाव सूचित होता है। ऐसा कर लोग अपना ही हित करते + क्योंकि विनय से आत्मा में निर्मलता, पवित्रता और सरलता आती हैं। इन गुणों के आने से जीवन बड़ा सात्त्विक और पवित्र बन जाता है । " णमो लोए सव्व साहूणं” का यही रहस्य है, जिसमें अनेक सूक्ष्म तत्त्व सन्निहित हैं। उन्हीं का प्राकट्य इस शोध ग्रंथ का प्रयोजन है। नवकार चुलिका: समीक्षा : नवकार चुलिका के चार पदों में नमस्कार की गरिमा का बहुत थोड़े शब्दोंमे बड़ा ही मार्मिक विवेचन हुआ हैं। इसके पूर्वार्ध में नवकार को सर्व पाप प्रणाशक कहा है " प्रकर्षेण नाशयति इति प्रणाशक : " जो विशेष रूप में जड़मूल से नाश करता हैं, उसको प्रणाशक कहा जाता हैं । नवकार मंत्र समस्त पापों का प्रणाश करता हैं, मूलोच्छेद करता हैं, उन्हें जड़ से मिटा देता हैं । सर्वथा क्षीण कर देता हैं, जिससे वे फिर कभी उत्पन्न नहीं होते । प्राणियों को दु:ख, क्लेश तथा संकट आदि का जो अनुभव होता है, वह उनके अशुभ कर्मों के उदय का परिणाम हैं। जब पापों या अशुभ कर्मोंका संपूर्णत: नाश हो जाता है तो फिर दुःख, कष्ट आदि आपत्तियों का प्रसंगही नहीं बनता । इसका आशय यह है कि पंच परमेष्ठियों को किया गया नमस्कार समस्त पापों का तथा उनके परिणाम स्वरूप समस्त दुःखों का नाश करता है । चुलिका के अंतिम दो पदोंमें यह प्रतिपादित किया गया है कि नवकार महामंत्र समस्त मंगलों में सर्वोपरि है । मंगल शब्द की व्याख्या शास्त्रकारों ने अनेक प्रकार से की है। लिखा है - "मंगति हितार्थ सर्पतीति मंगलम्” जो समस्त प्राणियों के हित में प्रवृत्त रहता है, उनका हित साधा है, वह मंगल है | प्राणियों की हित प्रवृत्ति के अनेक प्रकार हैं । अतः मंगलाणंच सव्वेसिं शब्दों का प्रयोग किया गया है, जो सभी प्रकारों के मंगलोंका द्योतक हैं । (८१)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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