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शब्द सर्व-त्यागी संतो या महात्माओं के लिए प्रयुक्त होतें है ।
! नवकार मंत्र के पाँचवे पद में ये ही महापुरूष आते हैं। इनका जीवन पूर्णत: स्वावलंबी होता है । ये किसी पर किसी प्रकार भार रूप नहीं बनते, इसलिए इनको वायु की तरह
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किसी को कोई बाधा नाही
अप्रतिबंध विहारी कहा गया है। वायु सहज रूप में चलती है। पहुँचाती हैं, इसी प्रकार ये संत महात्मा किसी के लिए, किसी प्रकार की असुविधा उत्पन्न नहीं करते। वे एक परिवार का त्याग करते हैं, परन्तु संसार के सभी प्राणी उनके पारिवारिक हो जाते हैं । कहा गया हैं।
अयं निजः परों वेदि, गणना लघुवेसाम् । उदारचरितानां तु, वसुधैव कुटुम्बकम् ॥
समानाहर
यह अपना है या पराया है, ऐसी गणना छोटे चित्तवाले, संकीर्ण भावनावाले लोग करते हैं। उदार चरित साधु पुरुषों के लिए तो सारी पृथ्वी ही सारा संसार ही अपना कुटुंब है । यह दृष्टिकोन कितना उंचा हैं, कितना पवित्र है, जिसके अनुसार संसार के छोटे-बड़े सभी जीव अपने परिवार के तुल्य हो जाते हैं। जिस प्रकार अपने परिवार की कोई हिंसा नहीं करता, उसको कष्ट नहीं देता, उसी प्रकार वे समस्त जगत् के प्राणियों को परिवार तुल्य मानकर कभी किसी की नहीं सताते ।
रूप
वे भिक्षाजीवी होते हैं, इसलिए वे भिक्षु कहलाते हैं, किंतु जैन साधुओं की भिक्षाजीविता सर्वथा निर्दोष होती हैं। वे अपने आहार की दृष्टि से किसी पर भार नहीं बनते । गृहस्थ अपने लिए जो भोजन तैयार करते हैं, उसमें से यदि वे भावनापूर्वक देना चाहते हैं तो साधु से ग्रहण करते हैं । साधु को भिक्षा देने के पश्चात् वे बाकी बचे हुए भोजन से प्रसन्नतापूर्वक काम चलाते हैं। नई रसोई नहीं बनाते । बनाने से वे दोष के भागी होते हैं । साधु भी यदि यह जानता हुआ भी ले लें तो वह भी दोष का भागी बनता हैं । जैन साधुओं की भिक्षाचर्या बहुत सूक्ष्म हैं। ..
2. जो प्रमादमें पड़ जाता हैं वह मुनिपद से च्युत हो जाता हैं, अतएव मुनिजन सदैव जागते रहते है । ५२
• भोजन की तरह आवास की दृष्टि से भी साधु किसी पर भार स्वरूप नहीं होते । गृहस्थोंद्वारा अपने प्रयोजन हेतु निर्मित भवनों में, मकानों में साधु उनकी स्वीकृति से निवास करते हैं । वे कहीं भी स्थायी रूप से नहीं रहते, केवल वर्षा ऋतु के चार मासों के अतिरिक्त वे पाद विहार करते हुए ग्रामानुग्राम विचरण करते हैं तथा लोगों को सदाचार, नैतिकता, मैत्री, समता और सद्भावना पूर्ण जीवन जीने का संदेश देते हैं । वे समाज से साधारण, अल्पतम भोजन, स्थान, वस्त्र, पात्र आदि के रूप में सेवा लेते हुए अधिकतम प्रदान करने का प्रयास
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