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मंत्र अथवा पंचमंगल भी कहते है।४९ णमो लोए सव्व साहूणं का रहस्य
जैन धर्म का दृष्टिकोण सदासेही बहुत व्यापक और उदार रहा है ।५० जैन शब्द तत्त्वत: किसी संप्रदाय का द्योतक नहीं हैं। यह एक आध्यात्मिक जीवनशैली है, जिसका आधार उच्च चरित्र, शील, त्याग, प्रामाणिकता, नैतिकता, करूणा, सेवा आदि पवित्र गुण है। उन्ही से मानव जीवन सफल होता है। नीतिकारों ने कहा है -
येषां न विद्या न तपो न दानं, न चापि शीलं न गुणो न धर्मः। ते मर्त्यलोके भुवि भारभूताः,
मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ॥ जो न तो विद्याध्ययन करते हैं, न तपश्चरण करते हैं, न दान करते हैं, न शीलवान होते हैं, न उत्तम गुणों का अर्चन करते हैं, न धर्म का पालन करते हैं, वे मर्त्यलोक में - पृथ्वी पर भार स्वरूप है। मनुष्यों के रूप में पशुओं की तरह जीवन व्यतीत करते हैं।
जैन धर्म मानव को सच्चे मानव बनने की प्रेरणा प्रदान करता है। संसार में सभी प्राणी प्रेम, सद्भावना, मैत्री एवं सहृदयता के साथ रहे, यह जैन धर्म का संदेश है। छोटे-बड़े सभी प्राणियों को जीवित रहने का अधिकार है।
दशवैकालिक सूत्र में कहा है - १. सभी जीव जीना चाहते है, मरना नहीं चाहते। इसलिए निग्रंथ - राग, द्वेषादि ग्रंथि । रहित सँत प्राणियों के वध का, हिंसा का वर्णन करते है।५१ निdian
( जैन धर्म का यह अहिंसा का महान् संदेश है। संसार में सुख तथा शांतिपूर्वक जीने का यह मूलमंत्र है। जैन धर्म केवल उच्च आदी की चर्चाओं पर टिका हुआ नही हैं। वह सर्वथा व्यावहारिक भूमिका को लेकर चलता रहा है। उसके अनुसार जीवन व्यतीत करनेवाले साधकों की दो श्रेणियाँ हैं। जिनमें त्याग और वैराग्य की तीव्रतम भावना होती है, वे सांसारिक जीवन में कुछ भी रस नहीं लेते। उनको विषय-भोग अप्रिय लगते हैं। यद्यपि ऐसे उच्च भावोप्पन्न व्यक्ति बहुत कम होते हैं, किंतु होते अवश्य हैं । वे समस्त सांसारिक संबंधो, आकर्षणों और इच्छाओं को त्याग कर पूर्ण रूप से आत्मोपासना और प्राणीमात्र के हित का मार्ग अपना लेते हैं, वे ही साधु, श्रमण, अनगार या निग्रंथ कहलाते हैं । ये सभी
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