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शब्द को बहुत महत्त्व दिया गया है। आगमों में, शास्त्रों में धर्मदेशना जिन शब्दावलियों में दी गई है, उनका उनके पाठों का शुद्ध उच्चारण अतिआवश्यक है। उपाध्यायों पर ये दायित्व होता है कि वे साधु-साध्वियों को आगमशास्त्रों का शुद्ध पाठोच्चारण सीखलायें, जिससे भगवान् महावीर की धर्मदेशना की परंपरा शाब्दिक दृष्टि से अक्षुण्ण रह सके।
जिनके समीप या सान्निध्य में रहने से श्रुत का, आगमों के अध्ययन का लाभ हो, वे उपाध्याय कहलाते है।४२ उपाध्याय आचारांग आदि ग्यारह अंगो का तथा औपपातिक आदि बारह उपांगो का स्वयं अध्ययन करते हैं और साधु-साध्वियों को उनका पाठ देते हैं। इस प्रकार वे आगमों की मौलिक परंपरा को जिवित रखते है। साधु :
जो निर्वाण या मोक्ष के मार्ग की साधना करते है अथवा आत्महित - आत्मकल्याण तथा परहति-लोककल्याण को साधते हैं, साधु कहलाते है।४३ साधु धर्म के संबंध में बतलाया गया हैं।
“सामायिकादिगतविशुद्धक्रियाभिव्यङ्ग्य - सकलसत्त्व - हिताशयामृतलक्षण स्वपरिणामः । एव साधु धर्म :"४४ ____पांच महाव्रत, पांच समिति आदि २८ मूल गुण रूप सकल चारित्र को पालनेवाला निर्गंथ मुनिही साधू संज्ञा को प्राप्त है।४५
साधु सामायिक आदि विशुद्ध क्रियायें करते हैं। जिनसे उनमें ऐसा अमृत तुल्य उत्तम आत्म परिणाम उत्पन्न होते हैं, जिसमें संसार के समस्त प्राणियों के हित का भाव व्याप्त
रहता है।४६
साधु शब्द बड़ा व्यापक हैं। यह साधना पर आधारित हैं। बाह्य स्वरूप तो केवल व्यवहार है। यथार्थ साधुत्व तो अंतरात्मा की वृत्तियों पर टिका हुआ है।४७
आचार्य समंतभद्र रत्नकरंडक श्रावकाचार में लिखते है कि - जिसकी विषय विकार की इच्छा मूल से समाप्त हुई है, जो आरंभ प्ररिग्रह से सर्वथा दूर है, जो ध्यान और तपमें लीन है, जो निरंतर निज स्वभावमें मग्न है वे साधु परमेष्ठि है।४८ पांच प्रकार के गुरू:
श्री नवकार मंत्रमें पांच प्रकार के गुरू हैं। अरिहंत मार्गदर्शक होने के कारण प्रेरक गुरू हैं। सिद्ध अविनाशी पद को प्राप्त हुए है , इसलिए सूचक गुरू है। आचार्य अर्थ के देशक होनेसे बोधक गुरू है। उपाध्याय सूत्र के दाता होने से वाचक गुरू है। साधु मोक्षमार्ग में सहायक होने से सहायक गुरू है। पांच गुरू को नमस्कार करने से श्री नवकार मंत्र केागुरू
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