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जैन दर्शन अनेकांत वाद पर आधारित समन्वयात्मक दर्शन हैं। इस दृष्टि से किसी भी प्रकार से सांप्रदायिकता का संकीर्ण भेदभाव न रखते हुए नवकार मंत्र तथा साधुपद पर जो आलेखन कार्य शुरू किया वह प्रस्तुत शोध प्रबंधके रुपमें उपस्थित है। वह विषय व्यवस्थित प्रस्तुत करने की दृष्टि से छह प्रकरण में विभक्त किया है। वे छहों प्रकरण छह काय जीवों की रक्षा करके सिद्ध-बुद्ध और मुक्त होने के लिए साधक को उपयोगी होवे यही मंगल कामना है।
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प्रकरण १
नवकार मंत्र के मूल ग्रंथ - आगम वाड्:मय __इस प्रकरण में मानव जीवन, धर्म, भारतीय संस्कृति, वैदिक संस्कृति, श्रमण संस्कृति, काल चक्र, तत्वदर्शन, आचार, आदि का विवेचन करके जैन परंपरा के वर्तमान काल के अंतिम तीर्थंकर श्रमण भगवान महावीर द्वारा प्रस्थापित द्वादशांग और तत्संबंधी अंग, उपांग मूल, छेद आदि बत्तीस आगमों का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। प्रकीर्णक, षट्खंडागम, धवला, कषाय पाहूड, आचार्य कुंदकुंद के प्रमुख ग्रंथ - पंचास्तिकाय, प्रवचनसार आदि ग्रंथोके शोध कार्य की पृष्ठ भूमिका में प्रयुक्त किया है।
सर्व प्रथम मानव जीवन का वर्णन किया है। कारण मनुष्य यह सृष्टि की सर्वोत्तम रचना है। इस सर्वोत्कृष्टता का मूल आधार है, उसकी विचारशीलता और विवेकशीलता जो प्राणीका
वैशिष्टय हैं। चैतन्य प्राणी के सहस्राधिक वर्ग में मानवजाति सर्व श्रेष्ठ हैं। हिताहित का विवेक . मनुष्यमें हैं। उसके साथ अन्य कोई भी प्राणी स्पर्धा नहीं कर सकता।
प्रेम, करुणा, दया, ममत्व, साहचर्य, संवदेना, क्षमा आदि असंख्य भाव मनुष्य के हृदय में निवास करते हैं। ऐसे भाव अन्य प्राणियों में दिखाई नहीं देते। चिंतन, मनन, विवेक, निर्णय, आदिकी क्षमता का वरदान तो सिर्फ मानव को ही मिला है। यही विचारशीलता मनुष्य के श्रेष्ठत्व की आधारशीला है। ___मनुष्य मन का ईश्वर है, मन का स्वामी है। उसके उत्थान पतन का कारण उसके शुभाशुभ विचार है । अशुभ विचारों से उसका पतन होता है और शुभ विचारोंसे उसका उत्थान होता है। यही मनुष्य के मनका व्यक्त रुप है। विचार मनुष्य का निर्माण करनेवाला है। यही मानव जीवन के महल की मजबूत आधारशीला है।