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पंच परमेष्ठी विवेचन
अरिहंत
नवकार मंत्र के पहले पद में अरिहंतो को नमन किया गया है । २८ जो राग, द्वेष, मोह आदि का सर्वथा नाश कर वीतरागता प्राप्त कर लेते हैं, वे अरिहंत कहलाते हैं । वे सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी होते हैं। वे सयोगी केवली भी कहे जाते हैं । केवली और सर्वज्ञ समानार्थक है । योग का अर्थ मानसिक, वाचिक तथा कायिक कर्म होता है । २९ वे योग सहित होते क्योंकि कर्मों का क्षय उनके कुछ अंश में बाकी रहता है । वे धर्मदेशना देते है । वे सबके उपकारक है । उन्हींद्वारा बतलाये गये धर्म के मार्ग का अवलम्बन कर लोग अपना कल्याण करते है । ३
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अरिहंत शब्द अर्हत का द्योतक है । अर्हत शब्द का अर्थ योग्य होता है । जो महापुरूष, सुरेन्द्र, असुरेन्द्र आदि की पूजा के योग्य है + वे अर्हत् कहलाते है । ३१ आचार्य श्रीभद्रबाहुस्वामी ने आवश्यक निर्युक्ति में कहा है -
जो वंदन एवं नमस्कार के योग्य है, जो पूजन, सत्कार के योग्य है, जो सिद्धत्व प्राप्ति योग्य है वे अर्हत् या अरिहंत कहलाते है ।
अर्हत् - अरहंत तथा अरिहंत - ये तीनों शब्द समान अर्थ के सूचक है । अर्हत् शब्द संस्कृत का है, तथा अरहंत और अरिहंत प्राकृत के रूप है । अरहंत तथा अरिहंत के रूपांतर है। अरिहंत का अर्थ कर्म या मोह रूपी शत्रुओं का नाश करनेवाला है । अर्हत् या अरहंत का अर्थ तीनों लोगो में पूजा या सम्मान योग्य है । अरुहंत का अर्थ पुन: उत्पन्न नहीं होनेवाला, संसार में पुन: नहीं आनेवाला है, क्योंकि वे कर्म क्षयकर मुक्त हो जाते
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नवकार में अरिहंताणं पद बहुवचन है। पांचवें पद में विद्यमान “लोए” तथा “सव्व” पद को अरिहंताणं पद के साथ जोड़ने से लोक के सब अरिहंतो को नमस्कार हो, ऐसा भाव होता है। यदि सर्व शब्द का अर्थ सर्वकालीन करें, तो यह नमस्कार केवल वर्तमान काल के अरिहंतो को ही नहीं किंतु तीनों कालों के अरिहंतों को होता है। लोक और काल को प्रत्येक पद के साथ ही इसी प्रकार जोड़ा जा सकता है । वे तीर्थंकर जिन और पुरुषोत्तम कहलाते है, क्योंकि वे अपने गुणों के कारण सभी पुरूषो में उत्तम या श्रेष्ठ होते हैं, इसलिए पुरूषोत्तम कहलाते है |
अरिहंत भगवान् अनंत गुणों के निधान है। उनके संपूर्ण गुणों की कोई गणना नहीं कर सकता। जिस प्रकार समुद्र के जल की बुँदों को, पृथ्वी की समस्त मृत्तिका के कणों को तथा
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