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समाधिमरण या सल्लेखना
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डॉ. भारिल्ल - मैंने तो आज तक किसी मुनिराज से श्रावक बनने का अनुरोध नहीं किया। मरणासन्न नहीं होने पर भी, संयम की रक्षा के नाम पर, आहारादि का त्याग कर मरण का वरण करने का निषेध जिनवाणी में स्थान-स्थान पर किया गया है; क्योंकि मरने पर तो संयम का नाश अनिवार्य ही है; क्योंकि जन्मते समय तो संयम कहीं भी नहीं होता। ___ यदि योग्य हों, पात्र हों, स्वस्थ हों, कोई दिक्कत न हो तो श्रावकों को मुनिराज बनने-बनाने में कोई दोष नहीं है । परन्तु अत्यन्त शिथिल अवस्था में, मुनिधर्म का स्वरूप न समझने वालों के अर्द्ध बेहोशी की हालत में कपड़े खोल देने से तो कोई मुनि नहीं बन जाता।
मुनिधर्म कितना महान है -अभी आपको इसकी कल्पना नहीं है। अत्यन्त शिथिल अवस्था में साधु बनने की बात तो अपने गले नहीं 'उतरती।
अखिल बंसल - अभी-अभी हाईकोर्ट का फैसला आया है कि सल्लेखना आत्महत्या जैसा ही है। अतः सल्लेखना लेने वाले और उन्हें प्रेरणा देने वालों पर कानूनी कार्यवाही की जाय।
उक्त आदेश से सम्पूर्ण समाज क्षुब्ध है, उसके विरुद्ध आन्दोलन कर रहा है। उस संबंध में आपका क्या कहना है?
डॉ. भारिल्ल - उक्त आदेश जैनधर्म पर कुठाराघात है। उसका प्रतिकार तो किया ही जाना चाहिये । उस आदेश को निरस्त कराने के लिये जो भी अहिंसक उपाय करना पड़े, हमें करना ही चाहिये। ___ उक्त सन्दर्भ में समाज जो कुछ कर रहा है, उसमें हमारी पूरी
अनुमोदना है और हम मन-वचन-काय से पूरी तरह सबके साथ हैं। ____ उक्त आदेश को तो निरस्त कर ही लिया जायेगा। पर हमें इस बात पर गंभीरता से विचार करना चाहिये कि इसप्रकार के प्रसंग बनने का मूल कारण क्या है?
अखिल बंसल - इस संबंध में आप क्या सोचते हैं?