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________________ सल्लेखना का प्रायोगिक स्वरूप समाधिमरण और सल्लेखना के स्वरूप पर विचार करने के उपरान्त अब सल्लेखना के प्रायोगिक स्वरूप पर विचार करते हैं। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में आचार्य समन्तभद्र लिखते हैं - 'आहारं परिहाय क्रमशः स्निग्धं विवर्द्धयेत्पानम्।। स्निग्धं च हापयित्वा खरपानं पूरयेत्क्रमशः ।।१२७ ।। खरपानहापनामपि कृत्वा कृत्वोपवासमपि शक्तया। पञ्चनमस्कारमनास्तनुं त्यजेत् सर्व यत्नेन ।।१२८ ।। आहार को छोड़कर क्रमशः स्निग्ध छाछ को बढ़ावे, फिर छाछ छोड़कर गर्मजल बढ़ावे । अन्त में गर्म जल को भी छोड़कर शक्ति अनुसार एक-दो उपवास करते हुये पंचनमस्कार मंत्र आदि का स्मरण करते हुये सावधानीपूर्वक देह का परित्याग करें।" ____ मैं आचार्य श्री विद्यानन्दजी महाराज के पास गया। उन्हें पुस्तक भेंट की और कहा कि महाराज मैं भी सल्लेखना की तैयारी कर रहा हूँ। उन्होंने छूटते ही कहा - जल का त्याग नहीं कर देना, जल का त्याग करने में जल्दी नहीं करना। अपनी बात की पुष्टी में कहा - भगवती आराधना की विजयोदया टीका में लिखा है। उसे ध्यान से पढ़ना। सामान्य सल्लेखनाधारियों के आहार-पानी आदि त्याग करने सम्बन्धी मार्गदर्शन, जो आगम में प्राप्त होता है; वह इसप्रकार है -
SR No.002296
Book TitleSamadhimaran Ya Sallekhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherPandit Todarmal Smarak Trust
Publication Year2015
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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