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________________ समाधिमरण या सल्लेखना आधार पर ही उन्हें एकल विहारी होने की अनुमति मिलती है । तद्भव मोक्षगामी मुनिराज ही मुख्य रूप से एकल विहारी होते हैं। __भावना के उद्वेग का नाम समाधि नहीं है; अपितु विवेक पूर्वक वीतरागभाव की वृद्धि ही समाधि है। स्वयं उपस्थित अनिवार्य मृत्यु के अवसर पर समताभावपूर्वक आकुल हुये बिना शान्ति से देहपरिवर्तन के लिये तैयार रहना ही समाधि है। ऐसी समाधिपूर्वक होने वाले मरण को समाधिमरण कहते हैं। समाधिमरण में सहजता है। न विशेष जीने की भावना है और न जल्दी मरने की भावना है । एकदम सहजता है । जीवन भी सहज, मृत्यु भी सहज । न इस भव सम्बन्धी विशेष विकल्प हैं, न आगामी भव सम्बन्धी। .. छूटने वाले संयोग सहजभाव से स्वसमय में छूट रहे हैं और आने वाले संयोग यथासमय आ जायेंगे, मिल जायेंगे। हम तो सभी के सहज ज्ञाता-दृष्टा हैं और रहेंगे। इसप्रकार का वीतरागभाव ही समाधि मरण हैं, सल्लेखना है। देह परिवर्तन का यह प्रसंग न शोक का प्रसंग है, न हर्ष का । यह जीवन की एक अनिवार्य किन्तु सहज घटना है; जो यथासमय घट जाती है। इसे सहज रूप से स्वीकार करना ही समझदारी है।
SR No.002296
Book TitleSamadhimaran Ya Sallekhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherPandit Todarmal Smarak Trust
Publication Year2015
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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