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साथ जीना चाहते हैं।
इसप्रकार जब हमेशा ही अनेकों महत्त्वपूर्ण कार्य लम्बित पड़े हों, तब हमें मरने की फुरसत कैसे मिल सकती है ? अरे मरने की तो क्या मृत्यु के बारे में सोचने का भी अवकाश कैसे मिल सकता है ?
यूं भी हम मृत्यु के बारे में सोचना ही नहीं चाहते, हमें भय लगता है कि कहीं ऐसा न हो कि हम मृत्यु को याद करें और मृत्यु हमको धर दबोचे। शायद हम सोचते हैं कि हम मृत्यु को याद नहीं करेंगे तो मृत्यु हमें भूल ही जायेगी, कभी हमारे पास आयेगी ही नहीं।
नहीं ! ऐसा भी नहीं है; पर बस, यूं ही हमें मृत्यु पसन्द ही नहीं; उसके बारे में सोचना पसन्द नहीं, उसके बारे में बात करना पसन्द नहीं ।
अपनी कमजोरियों को छुपाने में हम इतने माहिर हैं कि उन्हें अच्छे-अच्छे नाम दे डालते हैं, मृत्यु के प्रति अपनी इस अनिच्छा व भय को भी हमने एक सुन्दर सा नाम दे डाला है – Positive Attitude (सकारात्मक रवैया) । मृत्यु के बारे में सोचने व बात करने वाले व्यक्ति को हम Negative Attitude वाला आदमी कहते हैं। वक्त बेवक्त हम यह घोषणा भी करते फिरते हैं कि मैं मृत्यु से नहीं डरता, पर सचमुच तो मृत्यु के प्रति हमारे अन्दर गहरे बैठा भय ही पुकार -पुकार कर कहता है कि मैं मृत्यु से नहीं डरता।
हमारी चर्चा तो यह चल रही थी कि हम मरना इसलिए नहीं चाहते हैं कि हमारे अधूरे रह गये कामों का क्या होगा ? हमें लगता है कि अनर्थ ही हो जायेगा मेरे बिना; क्योंकि कितने महत्त्वपूर्ण काम हैं निपटाने को । मेरे कंधों पर कितनी बड़ी-बड़ी जिम्मेदारियाँ हैं। आखिर अभी मैं मर कैसे सकता हूँ ?
कई बार लोगों को हमने बड़े गौरव के साथ डींग हाँकते भी सुना होगा कि मुझे तो मरने की भी फुरसत नहीं हैं; पर भाई मेरे ! मौत भी कोई फालतू नहीं है कि कभी भी आपके पास चली आवे; पर धोखे में मत क्या मृत्यु महोत्सव अभिशाप है ? / ३८