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रखे जा सकते हैं।
होने को तो यह भी उतना ही असम्भव है, पर बात चाहत की चल रही है, कल्पना के आधार पर चल रही है तो हम कल्पना के धरातल पर ही समस्त विकल्पों को क्यों न आजमा लें; यदि वे सभी तर्क व व्यावहारिकता की कसौटी पर खरे ही नहीं उतरते हैं तो हम स्वयं उस विकल्प को त्याग देंगे ।
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उक्त समस्या का मेरा समाधान है पुनर्जन्म । मृत्यु के पश्चात् मनुष्यगति में ही पुनर्जन्म हो जावे व पुनर्जन्म की स्मृति भी प्रकट हो जावे, तब दोनों काम हो जाते हैं, जीर्ण-शीर्ण देह मिटकर नई देह मिल जाती है; फिर शैशव, बचपन, यौवन, बल, स्वास्थ्य सबकुछ मिल जाता है और स्मृति के कारण पुराना परिकर, बन्धु बान्धव, परिवार व समाज भी मिल जाता है। ठीक है न?
पर नहीं। यह तो अत्यन्त ही अनर्थकारक साबित होगा, यह तो अनेकों ऐसी विसंगतियों को जन्म देगा; जिनका व्यावहारिक समाधान सम्भव ही नहीं है।
सर्वप्रथम तो निष्ठा का सवाल खड़ा होगा। उस व्यक्ति की निष्ठा किसके प्रति होगी, किस परिवार के प्रति होगी, किस रिश्ते के प्रति होगी? क्योंकि सभी कुछ तो डबल हो जावेगा, सारे ही रिश्ते दुहरे (डबल) हो जायेंगे, माता-पिता, भाई-बहिन, पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री ।
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इन रिश्तों में वह किस रिश्ते के प्रति निष्ठावान रहे ? क्योंकि दोनों के प्रति एक जैसी निष्ठा का निर्वाह तो सम्भव है नहीं और कुछ रिश्ते तो होते ही एकनिष्ठ हैं; जैसे पति-पत्नी । यूँ तो सभी रिश्ते एकनिष्ठ ही होते हैं, चाहे पिता-पुत्र का हो या भाई-भाई का । किसी के पिता को अपना पिता कह देना या पुत्र को अपना पुत्र कह देना और बात है व एक रिश्ते के तौर पर उसका निर्वाह दूसरी बात । प्रत्येक रिश्ते के साथ उससे जुड़े अधिकार एवं कर्तव्यों की एक लम्बी श्रृंखला होती है और दो स्थानों पर उनका क्या मृत्यु महोत्सव अभिशाप है ?/3५