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'दिल बहलाने को गालिब ये ख्याल अच्छा है।' अन्यथा हकीकत तो यह है कि वे सभी तो इस दिन के लिए, इस घटना के लिए कब से तैयार बैठे हैं।
क्यों, विश्वास नहीं होता न ! अभी हो जावेगा।
पुत्र तो आपको निर्भार करने के लिए व तिजोरी की चाबी सहित सब जिम्मेदारियों को अपने कन्धों पर उठा लेने के लिए न जाने कब से लालायित है ही, पत्नी भी यूं तो कहने को तो 'वैधव्य' वाले जीवन की कल्पना से ही सिहर उठती है व सुहागिन ही मरना चाहती है; तथापि यदा-कदा अनजाने ही उसका भी अभिप्राय प्रकट हो ही जाता है, जब संसार के यथार्थ का वर्णन करती हुई, समय रहते अपने पक्ष में वसीयत करवा लेने के लिए अपनी समस्त कलाओं का उपयोग करते हुए वह कहती है कि जीवन का क्या भरोसा? जाने कब क्या हो जावे ? तब मेरा क्या होगा?'
इसप्रकार वह भी आपके बिना जीने के लिए तैयार है।
अब भी क्या आप न मानेंगे कि आपके चारों ओर आपके अपने लोग किसतरह आपके बिना जीवन जीने की तैयारियों में किस कदर व्यस्त रहते हैं। यह तो मृत्युपूर्व की उन तैयारियों की बात है, जो जीवन भर ही चलती रहती हैं, अब मृत्यु के बाद की भी कुछ चर्चा अप्रासंगिक नहीं होगी। ___ मृत्यु की क्रिया सानन्द सम्पन्न होते ही आसपास का माहौल आश्चर्यजनक रूप से युद्धस्तर पर यकायक सक्रिय हो उठता है और सभी लोग अपने-अपने योग्य मोर्चे सम्भाल लेते हैं, कोई क्रियाकर्म की व्यवस्था में जुट ज.ता है, कोई सम्बन्धियों को सूचित करने में, कोई डॉक्टर के पास दौड़ता है और कोई वकील के पास। कोई तिजोरी सम्भालने की चिन्ता करने लगता है और कोई वसीयत ढूंढने की। मृत्यु की सूचना पाकर लोग भाव विह्वल हों न हों, पर यह जानना उनकी प्रथम प्राथमिकता होती है
-- क्या मृत्यु महोत्सव अभिशाप है ?/१६