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कि यह शुभ कार्य किस विधि से सम्पन्न हुआ; और फिर दूसरे ही दिन, तिये की बैठक के बाद व्यावसाय के लिए जाने तक विभिन्न व्यवस्थाओं का एक निरन्तर सिलसिला निकटस्थ लोगों को इस कदर व्यस्त रखता है कि वर्तमान की सम्हाल में व्यस्त वे बेचारे अभी-अभी 'भूतपूर्व' हुए उस प्रियजन का स्मरण ही नहीं कर पाते।
एक विचार हमारे मस्तिष्क में आ सकता है कि यह तो हुई उन लोगों की बात जो यथासमय, यथाविधि मरण को प्राप्त होते हैं; पर असमय ही दुर्घटनापूर्वक मृत्यु को प्राप्त परिजनों का विरह तो उन पर निर्भर लोगों को झकझोर ही डालता है न ? पर नहीं ! कुछ भी तो नहीं बिगड़ता, बहुधा तो उल्टा ही होता है, धर्मपत्नी जो जीवनभर अबला बनी रही थी; यकायक प्रबल' हो उठती है व जीवन संघर्ष में अपने आपको बनाये रखने के उपक्रम में जुट जाती है और वह बच्चे जो सम्भवतः पिता की छत्रछाया में आधी उम्र बीत जाने तक भी गैर जिम्मेदार बने रहते, इतनी तेजी से समाज के, परिवार के एक सक्षम और जिम्मेदार सदस्य बन जाते हैं, जो सामान्य परिस्थितियों में नामुमकिन ही है। ____ मरण यदि राजा का हो, तो अगले ही क्षण एक ओर राजगद्दी के लिए संघर्ष होने लगता है व दूसरी ओर राजतिलक की तैयारियाँ । मृत्यु यदि रंक की हो तो उसके परिजन चिता की व्यवस्था से उबरते ही चूल्हे की व्यवस्था में व्यस्त हो जाते हैं, अवकाश किसी को नहीं। __ अवसान यदि योगी का होता है तो उसके शिष्य अगले ही पल आत्मा में जाने को तत्पर रहते हैं और महाप्रयाण यदि भोगी का हो तो उसके उत्तराधिकारी भोगों के लिए तत्पर दिखते हैं। __ इसप्रकार हम पाते हैं कि बिना विचारे भले ही संस्कारवश हम मृत्यु से भयभीत बने रहें। पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि, मृत्यु भी जीवन के अन्य अनेकों घटनाक्रमों के समान ही एक सामान्य घटना है, जिसे उतनी ही तटस्थतापूर्वक स्वीकार किया जाना चाहिए, जितना
- क्या मृत्यु महोत्सव अभिशाप है ?/२७