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जन्म लेती है, हम उसके प्रति श्रद्धावनत होते हैं। उसके दंड विधान से भयभीत होते हैं और इसलिए उसे रिझाने के लिए उसके समक्ष नतमस्तक होते हैं; तथापि उसके प्रति हमारी श्रद्धा सुविधाभोगी ही बनी रहती है। धर्म के जो विधान हमें अपने अनुकूल लगते हैं, उन्हें हम स्वीकार कर लेते हैं व जो प्रतिकूल लगते हैं, उनकी हम अनदेखी कर देते हैं। ... हम धर्मभीरू (धर्म से डरनेवाले) हैं, धर्मात्मा नहीं, धर्म के पालक नहीं, धार्मिक नहीं। धर्म के प्रति अनजाने ही एक अजीबोगरीब उपेक्षा भाव हमारे मस्तिष्क में है, हमारी मनोवृत्ति में है। धर्म के किसी भी विधान को अपनी सुविधा-असुविधा के हिसाब से हम स्वीकार या अस्वीकार भले कर लेते हैं, पर उनकी सत्यता या असत्यता की जाँच करने की हम कभी कोशिश ही नहीं करते, हमें उसकी आवश्यकता ही महसूस नहीं होती। ___ धर्म के प्रति हमारा यह रवैया क्यों है, कैसा है, कैसा होना चाहिए ? आदि, यह पृथक् समीक्षा का विषय हैं व इसकी चर्चा हम अन्यत्र करेंगे। ____ यहाँ तो हमारी चर्चा का विषय यह है कि जब सभी दर्शन पुनर्जन्म की
अवधारणा पर ही आधारित हैं व हम सभी लोग धर्म में भरोसा रखते हैं; तब हमें पुनर्जन्म के बारे में आशंका क्योंकर होनी चाहिए ? और यदि अब हम आत्मा की 'अजर-अमरता', 'अनादि-अनन्तता' को स्वीकार कर ही लेते हैं, तब मृत्यु से भय क्यों होना चाहिए। अरे ! भय की तो बात ही क्या ? क्या कदाचित् हमें उसके प्रति लालायित नहीं होना चाहिए ? एक नई शुरूआत के लिए, एक नई सुबह के लिए, एक नये परिवेश के लिए, एक और नई पारी के लिए।
जब उक्त युक्तियाँ हमारे समक्ष प्रस्तुत की जाती हैं तो हमें लगने तो लगता है कि होना तो यही चाहिए; पर हम स्वयं नहीं समझ पाते कि ऐसा होता क्यों नहीं है ? हमें लगता है कि तर्क तो ठीक है, पर आखिर विवाह व मृत्यु दोनों को हम एक ही श्रेणी में कैसे रख सकते हैं ? हालांकि कन्या
- क्या मृत्यु महोत्सव अभिशाप है ?/१८