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जैसा कि मैंने प्रारम्भ में ही कहा कि उत्सवों के प्रसंग पर हम पुराने वस्त्रों का त्याग कर नये वस्त्र धारण करते हैं व प्रसन्न होते हैं । चोले का यह परिवर्तन आनन्द का प्रसंग होता है, जश्न का प्रसंग होता है, तब इस देह के परिवर्तन का प्रसंग क्योंकर दुखकर कहा जावे, माना जावे; जबकि हमारी यह वर्तमान देह वृद्ध व जर्जर हो चुकी है, तेजहीन हो चुकी है, अशक्त हो चुकी है और यह सब हमें बिल्कुल अभीष्ट (इच्छित ) नहीं है।
हमें युवा बने रहना पसंद है, हम बचपन व यौवन की ओर ललचाई नजरों से देखते हैं, हम पुनः यौवन पाना चाहते हैं व उसे पाने के लिए क्या-क्या नहीं करते ? समय बर्बाद करते हैं, धन बर्बाद करते हैं, तब भी क्या हो पाता है ? कुछ भी तो नहीं। दूसरी ओर पुन: बचपन व यौवन प्राप्त करने का सर्वोत्तम साधन उपलब्ध है, मृत्यु व पुनर्जन्म; तब क्यों नहीं हम इस विकल्प की ओर आकर्षित होते हैं ?
आकर्षित होने से मेरा तात्पर्य यह नहीं कि हम आत्महत्या कर लें, स्वेच्छा से मृत्यु का वरण कर लें; पर जब यह कार्य प्राकृतिक तरीके से हो ही रहा हो, तब उसका इतना तीव्रतम प्रतिरोध क्यों ? उसके प्रति अनिच्छा क्यों, भय क्यों ?
इसका एकमात्र कारण है, आत्मा की अजर - अमरता के बारे में हमारा संदेह, हमारा अनिर्णय; पुनर्जन्म होने के बारे में हमारी आशंका ।
हालांकि जगत के सभी महत्त्वपूर्ण दर्शन पुनर्जन्म में आस्था रखते हैं और इसीलिए किसी भी दर्शन में आस्था रखनेवाले व्यक्ति को इसके बारे में शंकित नहीं होना चाहिए, परन्तु ऐसा होता नहीं है; क्योंकि धर्म व दर्शनों के बारे में भी हम सभी की आस्था का स्वरूप कुछ विचित्र प्रकार कही है।
एक ओर हमें जगत की विशालता व प्राकृतिक व्यवस्थायें आश्चर्यचकित करती हैं एवं फलस्वरूप इन सभी व्यवस्थाओं का संचालन करनेवाली किसी पारलौकिक शक्ति या सर्वशक्तिमान की परिकल्पना क्या मृत्यु महोत्सव अभिशाप है ?/१७
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