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________________ प्रारम्भते न खलु विघ्नभयेण नीचैः। प्रारम्भ विघ्नविहिता विरमन्ति मध्या। विघ्नः पुनपुनरपि प्रतिहन्यमाना। प्रारम्भमुत्तमजनाः न परित्यन्ति ॥ निम्न श्रेणी के लोग विघ्नों के भय से महान कार्य आरम्भ ही नहीं करते और मध्यम श्रेणी के लोग महान कार्य आरम्भ तो कर देते हैं, किन्तु विघ्नों के आने पर उन्हें बीच में ही छोड़ देते हैं; परन्तु उत्तम श्रेणी के लोग महान कार्य न केवल आरम्भ करते हैं, अपितु बार-बार विघ्नों के आने पर भी, उन्हें छोड़ते नहीं हैं। उन्हें पूर्ण करके ही मानते हैं। - हस्ताक्षर 2.5.2000 ___ यद्यपि दादा ने मुख से तो कुछ कहा नहीं था, पर यह लिखकर क्या-क्या नहीं कह दिया था ? इसे मैंने आशीर्वाद, प्रेरणा व आदेश के रूप में स्वीकार किया। कुछ चिन्तन का आधा-अधूरापन कहें व कुछ व्यावसायिक व्यस्तता, यह लेखन कार्य कुछ काल तो चला, पर बहुत आगे बढ़ न सका; तब मेरे मन में विचार आया कि क्यों न इस रचना के कथ्य को, मूल विषयवस्तु को अत्यन्त संक्षेप में, एक रूपरेखा के रूप में ही प्रकाशित करके पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर दिया जावे, शायद उनकी प्रतिक्रियायें, सुझाव, प्रेरणा व आग्रह शेष कार्य स्वयं ही मुझसे करा लेवें। ___इसे त्रुटिहीन व परिपूर्ण बनाने का विकल्प कहीं इस कार्य को एक बार पुनः लम्बित न कर दे, इस भय से अपने स्वभाव के सर्वथा विपरीत जल्दबाजी में यह कृति अपने इस वर्तमान रूप में “जहाँ है, जैसा है" (As it is, where it is) के आधार पर आपके समक्ष प्रस्तुत है। अपने इस जीवन के प्रति हमारा दृष्टिकोण कैसा होना चाहिए, उक्त विषय में मात्र कुछ ही पहलुओं पर कुछ सूत्रात्मक, संक्षिप्त विचार इस पुस्तिका में प्रस्तुत किए गए हैं। उक्त विचारों को मात्र पढ़ लेना व जान लेना पर्याप्त नहीं है। आवश्यकता है इन पर हर दृष्टिकोण से दूरगामी विचार करके इन्हें अपने जीवन में अपनाने की, अपने जीवन को उक्त विचारों के अनुरूप ढालने की; अपने जीवन का शिल्पी स्वयं बनने की। अन्तर्द्वन्द/v
SR No.002294
Book TitleAantardwand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmatmaprakash Bharilla
PublisherHukamchand Bharilla Charitable Trust
Publication Year2011
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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