________________
हमारा जीवन मात्र एक अनगढ़े पत्थर की तरह वेडोल न रह जावे, बल्कि एक आदर्श शिल्प बन सके - इसके लिए आवश्यकता है एक अत्यन्त ही कुशल शिल्पी की और अपने स्वयं के लिए वह 'शिल्पी' कोई अन्य नहीं हो सकता; क्योंकि शिल्प में जो कुछ भी अभिव्यक्त होता है, वह शिल्पी का अपना दृष्टिकोण होता है, उसकी अपनी परिकल्पना होती है। हमें अपने आपको जिस रूप में ढालना है, वह किसी अन्य की परिकल्पना नहीं, वरन् हमारा अपना स्वप्न है, हमारा अपना स्वप्न होना चाहिए और इसलिए हमें अपना शिल्पी स्वयं ही बनना होगा। __यदि अपने आपको गढ़ने के लिए हम किसी अन्य पर निर्भर रहें तो उसका परिणाम क्या आ सकता है ? इसकी कल्पना इस तथ्य से भलीभाँति की जा सकती है कि इस पृथ्वी पर अनन्त पत्थर विद्यमान हैं, वे आज तक अनगढ़े ही पड़े हैं। यदि उनमें से एक अत्यन्त नगण्य-सा भाग किसी ने गढ़ भी दिया है तो उनका क्या रूप बन पड़ा है, वह हमारे आपके सामने है।
क्या वह सब हमारी आशा-आकांक्षा के अनुरूप है ? क्या हम उन सभी को पसन्द कर पाते हैं ? क्या हमें उन सभी में कुछ न कुछ कमियाँ दिखाई नहीं देती ? यदि हम किसी अन्य के द्वारा निर्मित किसी भी कृति को पसन्द नहीं करते तो फिर भला हम अपने आपको गढ़े जाने के लिए किसके हवाले कर दें ? इसलिए यदि हम अपने जीवन को अपनी स्वयं की परिकल्पना के अनुरूप एक आदर्श शिल्प बनाना चाहते हैं तो हमें अपना शिल्पी स्वयं ही बनना होगा।
जिसप्रकार एक शिल्प के निर्माण के लिए, एक मूर्ति के निर्माण के लिए किसी आदर्श प्रतिकृति का सरसरी तौर पर मात्र अवलोकन (देखना) पर्याप्त नहीं है; उसका सूक्ष्म निरीक्षण करना होता है। प्रत्येक अंग-उपांग की संरचना व आकार-प्रकार के बारे में सूक्ष्मतम जानकारी प्राप्त करनी होती है, उनकी मापजोख करनी होती है; फिर पत्थर को गढ़ने का गहरा अभ्यास करना होता है। इन सब विधियों में पारंगत होने के बाद सब कुछ छोड़कर जुट जाना होता है, अपने कार्य में अहिर्निश (दिन-रात); तब कार्य सफल होता है। ___ उसीप्रकार यदि हम अपने इस जीवन को मात्र एक अनगढ़ पत्थर नहीं बने रहने देना चाहते, उसे अपनी आशा-आकांक्षा व आदर्शों के अनुरूप ढालना
- अपनी बात/vi