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हूँ कि लिखित विषयवस्तु अनन्तकाल तक मात्र व्यक्तिगत सम्पत्ति बनकर नहीं रह सकती, एक न एक दिन तो वह सार्वजनिक हो ही जावेगी और तब मैं मात्र वही लिख पाया जिन मनोभावों के प्रकट हो जाने में मुझे कोई संकोच न था।
इसी के साथ मेरे अन्दर प्रसुप्त साहित्यिकता के कीटाणु सक्रिय हो गये और इसतरह मेरा चिन्तन एक कृति का रूप लेने लगा।
जब मात्र स्वयं के लिए, सिर्फ सोचता ही था, तब चिन्तन आधा-अधूरा बना रहता था, न जाने विचारों की श्रृंखला चिन्तन के किस बिन्दु से प्रारम्भ होती व कहाँ टूट जाती, उसका न कोई ओर था न छोर; पर जब लिखना प्रारम्भ किया तो आवश्यकता महसूस हुई कि चिन्तन व्यवस्थित व सम्पूर्ण होना आवश्यक है।
उधर दूसरी ओर एक समानान्तर चिन्तन मेरे मस्तिष्क में चला करता था कि सामान्य श्रावक से साधकदशा का विकास एक प्राकृतिक व स्वाभाविक प्रक्रिया है, जो अन्तरंग वृत्तियों व परिणामों की विशुद्धि के समानान्तर बाह्य जीवन में भी स्वयमेव ही आकार ले लेता है, ऊपर से कुछ भी ओढ़ने की आवश्यकता नहीं होती, ऊपर से ओढ़ा हुआ आचरण तो बाह्य परिधान (वस्त्रादि) की भांति बोझिल ही होता है।
इस स्वाभाविक विकास को रेखांकित करते हुए एक चरित्र की रचना करना मेरी चिरसंचित अभिलाषा थी ही, सो मैंने अपने इन दोनों विचारों को एकमेक करके प्रस्तुत करने का निश्चय किया व समकित' शीर्षक से एक कथानक की रचना प्रारम्भ कर दी।
उक्त रचना कुछ समय तक क्रमिक रूप से 'जैनपथप्रदर्शक' पाक्षिक में प्रकाशित भी होती रही, पर उस कथानक के विकास से मैं स्वयं संतुष्ट नहीं था; अतः उसे बीच में ही रोक देना पड़ा। उसी रचना को पुनः नये रूप में कुछ परिवर्तन-परिवर्धन के साथ लिखना प्रारम्भ किया। अभी, 30-40 पेज ही लिख पाया था कि प्रसंगवश दादा का बम्बई आगमन हुआ और मैंने यह रचना पढ़कर उन्हें सुनाई। अबतक ऐसे अवसरों पर प्रतिक्रिया विहीन चुप्पी साधे रहनेवाले दादा (मेरे पूज्य पिताश्री डॉ. हुकमचन्दजी भारिल्ल) इस बार यूँ तो चुप ही रहे; पर मेरी डायरी के प्रथम पृष्ठ पर निम्नांकित संस्कृत श्लोक अर्थ सहित लिख दिया
- अपनी बात/iv