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अपने अस्तित्व के लिए आवश्यक मानता रहा। मैं मानता रहा कि यदि यह सब न किया जावे तो जीवन सफलता पूर्वक जिया ही नहीं जा सकता; . पर आज मैं स्वयं ही यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि आखिर मेरी इस मान्यता का आधार ही क्या है ?
मेरी यह मान्यता आखिर क्यों बनी कि छलकपट रहित सीधे-सादे व्यवहारपूर्वक, जीवन सफलता पूर्वक नहीं जिया जा सकता ? .
आज जब गम्भीरता पूर्वक विचार करता हूँ तो पाता हूँ कि यह सब मेरा मौलिक चिन्तन नहीं है, मैंने इस बारे में सोचा ही कब है ? अरे मेरे इस जीवन में चिन्तन को अवकाश ही कहाँ था ? यह मान्यता व इसीतरह की अन्य अनेक धारणायें तो मात्र जगत के वातावरण में से जगत की प्रचलित सामान्य मान्यताओं व कार्य प्रणालियों में से अनजाने ही ग्रहण कर ली
और उनका अनुसरण करने लगा। पर क्या सचमुच यह जीवन इसीतरह जिये जाने के योग्य था ? ___क्या मुझे स्वयं चिन्तनपूर्वक अपने लिए, अपनी रुचियों व योग्यताओं के अनुरूप, जीवन-शैली का विकास नहीं करना चाहिए था? क्या अपने इस जीवन के लिए कुछ लक्ष्य निर्धारित नहीं करने चाहिए थे ? और फिर उन लक्ष्यों की पूर्ति करने वाली जीवनशैली नहीं अपनानी चाहिए थी? तब फिर हम सभी ऐसा क्यों नहीं करते ? क्यों नहीं स्वयं अपनी जीवन शैली का निर्माण करते ? क्यों नहीं अपने जीवन की दिशा निर्धारित करते? क्यों छोड़ देते हैं अपने इस जीवनरूपी तिनके को संसाररूपी सागर में स्वच्छन्द (भाग्य भरोसे) विचरण के लिए, जिसका न कोई लक्ष्य है न
अपने आप पर कोई नियंत्रण। ____ यदि हम स्वयं अपने आपको इतना सक्षम नहीं मानते कि स्वयं विचारपूर्वक अपनी रीति-नीति और दिशा तय कर सकें व अनुसरण करना ही हमारी नियति हो, मजबूरी हो तो भी क्या अनुसरण भी विचार पूर्वक नहीं किया जाना चाहिए ? क्या हमें सुपात्रों का अनुसरण नहीं करना
अन्तर्द्वन्द/22