________________
काश! यह आज वाली समझ मुझे पहिले ही आ जाती। जीवन तो जीना ही था, यदि विचारपूर्वक जिया होता तो यही जीवन, जीवनमरण का अन्त करनेवाला साबित होता, जो अब अनन्त भव-भ्रमण का निमित्त बनकर रह गया है।
कितना आत्ममुग्ध था मैं अपने मनोभावों को प्रकट न होने देने वाली अपनी व्यवहार शैली पर। इसे मैं जीवन जीने की कला मानता रहा और अपनी इस काबिलियत पर स्वयं ही अपनी पीठ थपथपाता रहा। हालांकि मन मेरा भी थोड़ा कम या थोड़ा ज्यादा, मलिन ही था; पर लोग मुझे महन्त समझते रहे और मैं भी अपने व्यवहार से उन्हें यही आभास देता रहा। शायद यही कारण रहा कि मुझे सचमुच महन्त बनने की आवश्यकता ही महसूस न हुई; क्योंकि तत्कालिक तौर पर तो मुझे महन्तपने की मान्यता मिलती ही रही, पर मैंने कभी यह तो सोचा ही नहीं कि मेरा यह व्यवहार मायाचार की श्रेणी में आता है और मुझे अपने इस एक-एक पल के मायाचार के लिए युगों-युगों तक क्या कीमत चुकानी होगी?
क्या यही जीवन सीधे व सरल व्यवहार के साथ नहीं जिया जा सकता था ? तब भी क्या कसर रह जाती मेरे जीवन में ? यूं तो यह शाश्वत सत्य है कि मान-प्रतिष्ठा, भोगसामग्री, अधिकार व अनुकूल-प्रतिकूल संयोग सब पूर्वकृत पुण्य-पापादि के उदयानुसार ही मिलते हैं और यदि मेरे तद्रूप पुण्य का उदय था तो इन सबसे मुझे कौन वंचित कर सकता था ? तब क्या मेरा यह छलकपट भरा व्यवहार व्यर्थ ही न रहा? . ____ अरे व्यर्थ कैसे रहेगा, वह तो अनर्थ का सृजन करेगा, तब शायद मैं विचार करूँगा कि यह मुझे किन पापों की सजा मिल रही है, पर शायद मुझे तब अपने इन पापों की स्मृति ही नहीं रहे और स्मृति रहे भी तो क्या? __ मैंने अपने इन क्रियाकलापों को, अपनी इन करतूतों को पाप माना ही कब है? मैं तो इन्हें जीवन जीने की कला मानता रहा और इस जगत में
- अन्तर्द्वन्द/21 -