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________________ १९. हे आनन्द, परमात्मा स्पर्श गन्ध, और रस के बाह्य है, वह रूप रहित है, जीव को शरीर से भिन्न समझ । सदगुरु परमात्मा को जानते हैं । २०. हे आनन्द, दूसरा सब व्यवहार का त्याग करके सचेतन देव का ध्यान कीजिये क्योंकि एक ही समय में ध्यान रूपी अग्नि से कर्म रूपी पयाल जल जाता है। २१. हे आनन्द, कोई झाप झपता है, बहुत तप करता है तो भी वह कर्म को नष्ट नहीं कर सकता किन्तु जो एक समय के लिये भी आत्मा को जानता है वो चार गति को तिलांजलि देता है। २२. हे आनन्द, हे जीव अन्य सबका त्याग करके तू उस आत्मा को जान वह सहज समाधि में जाना जाता है। यही जिन-शासन का सार है। २३. हे आनन्द, आत्मा ही संयम और शील के गुण है । आत्मा ही दर्शन और ज्ञान है, आत्मा ही व्रत है, तप है, संयम है, देव है, गुरु है । आत्मा ही प्रभु है और निर्वाण है। २४. हे आनन्द, परमात्मा का जो ध्यान किया जाता है वह ही सच्चा व्यवहार है । जो सम्यक्त्व ज्ञान से बाहर रहता है सो धन्य, कण पाने के बिना मात्र पुआले ग्रहण करता है। २५. हे आनन्द, जो माता पिता कुल और जाति के रहित है उसको न तो रोष होता है न तो राग । सब सम्यक् दृष्टि से जानना चाहिये । यह सदगुरु का स्वभाव २६. हे आनन्द, जो मुनि परमानंद के सरोवर में प्रवेश करता है सो अमृत रूपी महारस का पान करता है। यह गुरु स्वामी का उपदेश है । २७. हे आनन्द, जो चक्रवती होता है वो पृथ्वी को जीतता है और रमणियों के साथ रमण करता है। इसी तरह मुनि ज्ञान के बल से सब जीत कर सिवपुरी के निकट पहुंचता है।
SR No.002292
Book TitleAnanda
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH C Bhayani, Pritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year1999
Total Pages28
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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