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जो सुह-असुह-वि वज्जियउ, सुहु सचेयण-भाउ । सो धम्मु वियाणहिं जिय, णाणी बोल्लइ साहु ॥४०॥
धेयहं धारण-परिरहिउ, जासु पइट्ठइ भाउ । सो कम्में नहि वंधियइ, जहिं भावहि तहिं जाउ ॥४१॥
सो द्रोहक अप्पाण यह, अप्पा जो ण मुणेइ । जो जायइ-तह परम-पउ, जिणवरु एम भणेइ ॥४२॥
वउ तउ णियम करंतयहं, जो न मुणइ अप्पाणु । सो मिछदिठीह वइ, णहु पावइ णिव्वाणु ॥४३॥
जो अप्पा णिम्मलु मुणइ, वउ-तउ-सीलु-समाणु । सो कम्म खुउ फुडु करइ, पावइ लहु णिव्वाणु ॥४४||
ए अणुपेहा जिण-भणिय, णाणी बोल्लइ साहु । ते भाविज्जहि झीव तुहूं, जइ चाहहि सिव लाहु ॥४५॥
अंत में निदेशः इति द्वादशांग अनुप्रेक्षा लक्ष्मीचंद्र कृता समाप्तं ॥