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________________ 25 (३२) जोगी कहता है- (आगे के) योगीयोंने कहा है कि- हे योगी योग दृष्टि से तू देख कि जो देखा जाता है (जिसका तू दर्शन करता है) वह तू ही है सो तुमसे भिन्न ऐसा कोई दूसरा नहीं है। (३३) "वह मै हूँ, वह मैं हूँ, मैं वह ही हूँ"- (योगी) ऐसा समझता है । हे योगी लोग, वह मोक्ष प्राप्ति का कोई दूसरा कारण हो ऐसा नहीं विचारता। (३४) जो चेतन का (अंतिम) परिणाम रूप है (?) उसको एक मात्र उत्तम धर्म जानना चाहिये । आत्मा की वारम्वार भावना करना (ध्यान करना) वही शाश्वत सुख का स्थान है। (३५) हे भाई, पंच महाभूतो से भ्रान्त हुआ. तू निर्वाण की इच्छा नहीं रखता है। इसी कारण जो तीन भुवन का प्रधान तत्त्व है उसको (जानना नहीं चाहता है। (३६) जो ढाई हाथ की देउकुलिका है (अर्थात् यह मानव शरीर) वहीं शिव-शान्ति (निवास करता है) ऐसा तू समझ । हे मूढ देवल में देव है ही नहीं । तू भूला क्यों भटकता है । ___ (३७) जिसको ज्ञान होता है उसको जानना चाहिये, दूसरा जानने वाला कोई नहीं है। सकल जगत मिथ्या प्रवृत्ति में (झंझाल में) फसा हुआ है। योगी ऐसा कहता है। - (३८) जिसको ज्ञान होता है उसको ही जानना चाहिये । यह संसार असार है, तो जो तीन भुवन का सार है एक मात्र उसका ही ध्यान करना चाहिये। (३९) जो कर्म विचारणा के निमित्त से भी बंधा जाता है । वह यदि जिन धर्म की प्राप्ति हो तभी ही छूट सकता है (मुक्त होना संभव है)।
SR No.002291
Book TitleAnupeha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year1998
Total Pages36
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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