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कोट्याचार्य को एक माना है परन्तु शीलांक और कोट्याचार्य दोनों का समय एक नहीं है। कोट्याचार्य का समय विक्रम की आठवीं शती है तो शीलांक का समय विक्रम की नौवीं-दसवीं शती है अतः वे दोनों पृथक-पृथक हैं। विवरण में जो कथायें प्राप्त की हैं वे प्राकृत भाषा में हैं। 98.कोऊहल
लीलावई महाकाव्य के रचयिता कोऊहल कवि हैं। इन्होंने अपने वंश का परिचय देते हुए लिखा है कि इनके पितामह का नाम बहुलादित्य था, जो बहुत बड़े विद्वान् और यज्ञयागादि अनुष्ठानों के विशेषज्ञ थे। ये इतना अधिक यज्ञानुष्ठान करते थे कि चन्द्रमा भी यज्ञ धूम से काला हो गया था। इनका पुत्र भूषणभट्ट हुआ, वह भी बहुत बड़ा विद्वान था। इनका पुत्र असारमति कोतूहल कवि हुआ। इस ग्रंथ में कवि ने अपने नाम का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है, पर जिस क्रम से अपना वंश परिचय दिया है, उससे कोतुहल नाम भी उचित जान पड़ता है। यशस्तिलक और पउमचरिउ (स्वयंभू)काव्य ग्रंथों में कोहुल का उल्लेख मिलता है। अनुमान है कि कोऊहल हरिभद्र के अनन्तर और आनन्दवर्धन से पूर्व हुए हैं। अतः उनका समय 9 वीं शताब्दी का प्रथम पाद है। कवि वैष्णव धर्मानुयायी है।
लीलावईकहा के कर्ता का नाम कौतुहल (कोहल) का उल्लेख ग्रन्थ की गाथा 25, 921, 1310 में प्राप्त होता है। टीकाकार ने भी इसी का समर्थन किया है। साथ ही कौतुहल के परवर्ती साहित्यकार महाकवि पुष्पदन्त, नयनन्दि एवं सोमदेवसूरि आदि ने भी अपने काव्यों में कोऊहल नाम से इसी कौतुहल कवि को स्मरण किया है। अपना स्वयं का परिचय देते हुए कवि ने सूचना दी है। कि कोऊहल के पितामह का नाम बहुलादित्य एवं पिता का नाम भूषणभट्ट था, जो बड़े साधक एवं विद्वान थे। इस काव्य की पाण्डुलिपियों के लेखनकाल और अन्य कवि एवं आचार्यो के उल्लेखों के कारण विद्वानों ने समीक्षा करके कोऊहल का समय सन् 750 से 840 ई. के मध्य स्वीकार किया है। कोऊहल ने आनन्दवर्द्धन के पूर्व एवं आचार्य हरिभद्र एवं कवि वाक्पतिराज के बाद में इस महाकाव्य की रचना की है।
प्राकृत रत्नाकर 085