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किया है। शैवधर्म के कापालिक, महाभैरव, आत्मवधिक गुग्गलधारक, 'कारुणिक आदि सम्प्रदाय, अर्धनारीश्वर, महाकाल, शशिशेखर रूप शिव तथा रुद्र, स्कन्द, गजेन्द्र, विनायक आदि इस समय प्रभावशाली थे। कात्यायनी और कोट्टजा देवियाँ शैवों द्वारा पूजित थी। वैदिकधर्म में कर्मकाण्डी, वानप्रस्थों, तापसों की क्रियाएँ प्रचलित थीं। भारतीय दर्शनों में बौद्धदर्शन की हीनयान शाखा का उद्द्योतन ने उल्लेख किया हैं। लोकायतदर्शन के प्रसंग में आकाश तत्व का उल्लेख पंचभूत के प्रभाव का परिणाम है । जैनधर्म को अनेकान्तदर्शन कहा जाता था। सांख्यकारिका का पठन-पाठन सांख्यदर्शन के अन्तर्गत मठों में होता था। त्रिदण्डी, योगी एवं चरक इस दर्शन का प्रचार कर रहे थे। दूसरी ओर कुछ सांख्य-आलोचक भी थे। कुष्ट-निवारण के लिए मूलस्थान भट्टारक के उल्लेखों से तत्कालीन सूर्योपासना का स्वरूप स्पष्ट होता है। जैनधर्म के प्रमुख सिद्धान्तों का दिग्दर्शन ग्रन्थकार ने अनेक प्रसंगों में प्रस्तुत किया है, जो उनका प्रतिपाद्य था।
कुवलयमालाकहा ग्रन्थ एक ओर जहाँ उद्योतनसूरि के अगाध पाण्डित्य और धर्म विशद ज्ञान का परिचायक है, वहाँ दूसरी ओर प्राचीन भारतीय समाज, धर्म और कलाओं का दिग्दर्शक भी। पूर्वमध्यकालीन भारत के सांस्कृतिक इतिहास के निर्माण में इस ग्रन्थ के प्रामाणिक तथ्य सुदृढ़ आधार सिद्ध होंगे। साहित्य वृत्तिपरिष्कार के द्वारा नैतिक मार्ग में प्रवृत्त करता है। कुवलयमालाकहा को धार्मिक एवं सदाचारपरक दृष्टि साहित्य के इस उद्देश्य को भी चरितार्थ करती
97. कोट्याचार्य
कोट्याचार्य ने आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण के अपूर्ण स्पोपज्ञ भाष्य को पूर्ण किया और विशेषावश्यकभाष्य पर एक नवीन वृत्ति भी लिखी है पर उन्होंने वृत्ति में आचार्य हरिभद्र का कहीं पर भी उल्लेख नहीं किया है। इससे यह ज्ञात होता है कि ये हरिभद्र के समकालीन या पूर्ववर्ती होंगे। कोट्याचार्य ने जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण का श्रद्धास्निग्ध स्मरण किया है। मलधारी आचार्य हेमचन्द्र ने अपनी विशेषावष्यकभाष्यवृत्ति में कोट्याचार्य का प्राचीन टीकाकार के रूप में उल्लेख किया है। प्रभावकचरितकार ने आचार्य शीलांक और
84 0 प्राकृत रत्नाकर