SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तर में वाराणसी एवं पश्चिम में सोपारक और प्रतिष्ठान देशी-विदेशी व्यापार के मेस्दण्ड थे। सोपारक में 18 देशों के व्यापारियों का एकत्र होना एवं देसिय बणिय मेलीए (व्यापारी मण्डल) का सक्रिय होना इस बात का प्रमाण है। साहसी सार्थवाह पुत्रों ने जल-थल मार्गो द्वारा न केवल भारत में अपितु पड़ोसी देशों से भी सम्पर्क साध रखे थे। तक्षशिला, नालन्दा आदि परम्परागत शिक्षाकेन्द्रों का उल्लेख न कर उद्द्योतन ने अपने युग के वाराणसी और विजयपुर को शिक्षा के प्रधान केन्द्र माना है। विजयपुरी का मठ सम्पूर्ण शैक्षणिक प्रवृत्तियों से युक्त था। देश के विभिन्न भागों के छात्र यहाँ आकर अध्ययन करते थे। उनकी दैनिकचर्या आधुनिक छात्रावासों के समकक्ष थी। कुवलयमालाकहा को अप्रतिम उपयोगिता उसकी भाषागत समृद्धि के कारण है। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं पैशाची के स्वरूप मात्र का परिचय लेखक ने नहीं दिया, अपितु ग्रन्थ में इन सबके उदाहरण भी दिये हैं। उनको जांचने पर ज्ञात होता है कि समाज के प्रायः सभी वर्गों की बातचीत में अपभ्रंश प्रयुक्त होती थी। भाषावैज्ञानिक दृष्टि से 18 देशों (प्रान्तों) की भाषा के नमूने एक स्थान पर पहली बार इस ग्रन्थ में प्रस्तुत किये गये हैं। उद्द्योतनसूरि ने ललित कलाओं में ताण्डव एवं लास्य नृत्य तथा नाट्यों का उल्लेख किया है। इन सन्दर्भो के अध्ययन से ज्ञात होता है कि अभिनय एवं वेशभूषा द्वारा पात्रों के चरित्र का यथावत् अनुकरण नाट्यों द्वारा किया जाता था, जो समाज को रसानुभूति कराने में सक्षम होते थे। भित्तिचित्र एवं पटचित्र दोनों के प्रचुर उल्लेख कुवलयमालाकहा में हैं। पटचित्रों द्वारा संसार दर्शन कराया गया है। पटचित्रों की लोकपरम्परा में उद्योतन का यह महत्त्वपूर्ण योगदान है। ग्रन्थ के कथात्मक पटचित्र ने पावू जी की पड़ आदि को आधार प्रदान किया है। उद्योतन द्वारा प्रयुक्त चित्रकला के परिभाषिक शब्दों में भाव, ठाणय, माण, दटुं, वत्तिणी, वण्ण विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। भारतीय स्थापत्य के क्षेत्र में उद्योतन ने प्रतोली को रक्षामुख तथा अश्व क्रीड़ा के केन्द्र को बाह्याली कहा है । बाह्याली के वर्णन से ज्ञात होता है वह आधुनिक पोलो खेल के मैदान जैसा था। आठवीं सदी के धार्मिक जगत् का वैविध्यपूर्ण चित्र उद्योतनसूरि ने कुवलयमाला में अंकित प्राकृत रत्नाकर 083
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy