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विवरण से ज्ञात होता है कि इस समय तक गुर्जरदेश और मरुदेश (मारवाड़) की सीमाएँ निश्चित हो गयी थीं। दक्षिण भारत में व्यापारिक और शैक्षणिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण विजयानगरी आधुनिक रत्नगिरि जिले का विजयदुर्ग नामक नगर है। उद्द्योतनसूरि ने 34 जनपदों एवं 40 नगरों के उल्लेख के साथ ग्रामसंस्कृति को उजागर करने के लिए अन्य ग्रामों के साथ चिन्तमणिपल्लि एवं म्लेच्छपल्लि का भी वर्णन किया है। इससे आर्य और अनार्य संस्कृति के निवास स्थानों की भेदरेखा स्पष्ट होती है। एशिया के 17 प्रमुख देशों के नाम कुवलयमाला में उल्लिखित हैं।
आठवीं शताब्दी के सामाजिक जीवन का यथार्थ चित्र उद्द्योतनसूरि ने प्रस्तुत किया है। श्रोत-स्मार्त वर्ण व्यवस्था उस समय व्यवहार में स्वीकृत नहीं थी। ब्राह्मणों की श्रेष्ठता होते हुए भी उनकी क्रियाएँ शिथिल हो रही थीं।शूद्र आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न होने से प्रगति कर रहे थे। क्षत्रियों के लिए जाकुर शब्द प्रयुक्त होने लगा था। जातियों का विभाजन हिन्दू, जैन, ईसाई आदि धर्म के आधार पर न होकर आर्य-अनार्य संस्कृति के आधार पर था। प्रादेशिक जातियों में गुर्जर, सोरट्ठ, मरहट्ठ, आदि अस्तित्व में आ रही थीं। आधुनिक अरोड़ा जाति आरो? के रूप में प्रचलित थी।विदेशी जाति हूण का क्षत्रिय और शूद्रों में विलय हो रहा था। चावला, खन्ना, आदि जातियों का सम्बन्ध इन्हीं से है। उद्द्योतन ने तज्जिकों के उल्लेख द्वारा अरबों के प्रवेश की सूचना दी है। श्रेष्ठिवर्ग का तत्कालीन राज्यव्यवस्था में भी प्रभाव था। महाराजाधिराज, परमेश्वर आदि उपाधियाँ राजाओं की प्रभुत्ता की द्यौतक थीं। स्वामियों की सेवा के लिए ओलग्गउ शब्द प्रयुक्त होता था, जो सामान्तकालीन जमींदारी प्रथा का प्राचीन रूप था सुरक्षा की दृष्टि से इस समय राजकीय कर्मचारियों एवं अधिकारियों में वृद्धि हो रही थी। नगरमहल्ल, द्रंग, दंडवासिय, व्यावहारिन् आदि उनमें प्रमुख थे।
समाज की यह समृद्धि वाणिज्य एवं व्यापार की प्रगति पर आधृत थी। अच्छे बुरे हर प्रकार के साधन धनोपार्जन के लिए प्रचलित थे। देशान्तर-गमन, सागर सन्तरण एवं साझीदारी व्यापार में दुहरा लाभ प्रदान करती थी। स्थानीय व्यापार में विपणिमार्ग और मण्डियाँ क्रय-विक्रय के प्रमुख केन्द्र थे। दक्षिण में विजयपुरी
820 प्राकृत रत्नाकर