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________________ लेखक ने पादलिप्त (पालित्तय और उनकी तरंगवती) सातवाहन, षट्पर्णक, गुणाढय (और उनकी वडुकहा, 3, 23) व्यास, वाल्मीकी, बाण (असौर उनकी कांदबरी), विमल रविषेण, जडिल रायरिसि देवगुप्त, रायरिसि प्रभंजन और हरिभद्र, तथा सुलोचना नामक धर्मकथा का उल्लेख किया है। क्रोध मान, माया, लोभ और मोह आदि का परिणाम दिखाने के लिये यहाँ अनेक सरस कथाओं का संग्रह किया गया है। महाराष्ट्री और देशीभाषा के वर्णनों से निबद्ध प्राकृत भाषां में रचित यह रचना सकलकथा ही है जिसमे तापस, जिन और सार्थवाहों को प्रस्तुत किया गया है। कथासुंदरी की नववधू के साथ तुलना करते हुए उद्द्योतनसूरि ने लिखा है सालंकारा सुहया ललियपाया मउय-मंजु-संलावा। सहियाण देइ हरिसं उव्बूढा णववहू चेव॥ अलंकार सहित, सुभग, ललितपदवाली, मृदु और मंजु संलाप से युक्त कथा सुंदरी सहृदयजनों का आनन्द प्रदान करने वाली परिणीत नववधू के समान शोभित होती है। ___ आठवीं शताब्दी के इस महत्त्वपूर्ण ग्रंथ के सांस्कृतिक अध्ययन के लिये आवश्यक विषयों का प्रतिपादन पाठकों का ध्यान आकर्षित करता है। तक्षशिला का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वहाँ कोई भी ऐसा व्यक्ति न था जो मैलेकुचैले वेश में रहता हो (64, 30)। तक्षशिला से शूर्पारक (नाला सोपारा, जिलाजाणा) जानेवाले सार्थवाह का अत्यन्त सरस वर्णन यहाँ किया गया है। शूर्पारक में देशी व्यापारियों का एक मंडल (देसियावाणियमेली) था जिसकी ओर से देश-देशान्तर से आये हुए व्यापारियों का गंध, तांबूल मालार्पण आदि से सत्कार किया जाता था। ये व्यापारी अपने अपने अनुभव सुनाकर सब का मनोरंजन करते थे। कोई कहता वह घोड़े लेकर कौशल देश गया था, वहाँ के राजा ने घोड़ों के बदले हथिनी के शिशु दिये। कोई उत्तरापथ जाकर सुपारी बेचकर घोड़े खरीद कर लाया था। कोई पूर्व देश में मुक्ता बेचकर चामर खरीद कर लाया था। कोई द्वारका से शंख खरीदकर लाया था। कोई बर्बरकूल में वस्त्र बेचकर वहाँ से हाथीदाँत और मुक्ता लेकर लौटा था। कोई सुवर्णद्वीप (सुमात्रा) में पलाश के 800 प्राकृत रत्नाकर
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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