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यह प्रधानतः प्राकृत में लिखी गद्य-पद्यमयी रचना है। इसमें 54 कहानियों का संग्रह है। ग्रंथकार ने दिखलाया है कि इन कहानियों के द्वारा हेमचन्द्रसूरि ने कुमारपाल को जैनधर्म के सिद्धान्त और नियम समझाये थे । इसकी अधिकांश कहानियाँ प्राचीन जैनशास्त्र से ली गई हैं। इसमें श्रावक के 12 व्रतों के महत्त्व सूचन करने के लिए तथा पाँच-पाँच अतिचारों के दुष्परिणामों को सूचित करने के लिये कहानियाँ दी गई हैं। अहिंसाव्रत के महत्त्व के लिए अमरसिंह, दामन्नक आदि, देवपूजा का माहात्म्य बताने के लिए देवापाल पद्मोत्तर आदि की कथा, सुपात्रदान के लिए चन्दनबाला, धन्य तथा कृतपुण्यकथा, शीलव्रत के महत्त्व के लिए शीलवती, मृगावती आदि की कथा, द्यूतक्रीड़ा का दोष दिखलाने के लिए नलकथा, परस्त्री - सेवन का दोष बतलाने के लिए द्वारिकादहन तथा यादवकथा आदि आई हैं। अन्त में विक्रमादित्य, स्थूलभद्र, दषार्णभद्र कथाएँ भी दी गई हैं। 95. कुम्मापुत्तचरियं
कूर्मापुत्रचरित की गणना प्राकृत के चरितकाव्य तथा खण्डकाव्य दोनों में ही की जाती है। कवि अनंतहंस ने लगभग 16वीं शताब्दी में इस ग्रन्थ की रचना की थी। इसमें 198 गाथाएँ हैं, जिनमें राजा महेन्द्रसिंह और उनकी रानी कुर्मा के पुत्र धर्मदेव के जीवन की कथा वर्णित है। कथा के प्रारम्भ में कूर्मापुत्र के पूर्वजन्म का वृत्तांत वर्णित है। मूल कथानक के साथ अनेक अवान्तर कथाएँ भी गुम्फित हुई हैं । अवान्तर कथाएँ सरस एवं रोचक हैं। इन छोटी-छोटी कथाओं के माध्यम से तप, दान, दया, शील, भावशुद्धि आदि शुष्क उपदेशों को सरस बनाकर प्रस्तुत किया गया । दान, तप, शील एवं भाव के भेदों से धर्म को चार प्रकार का बताया है। भाव को सर्वश्रेष्ठ तथा मोक्ष प्रदान करने वाला कहा है। यथादाणतवसीलभावणभेएहि चउव्विहो हवइ धम्मो ।
सव्वेसु तेसु भावो महप्पभावो मुणेयव्वो । ... (गा. 5 )
इन प्रमुख खंडकाव्यों के अतिरिक्त प्राकृत में मेघदूत के अनुकरण पर लिखा गया भृंगसंदेश भी प्राप्त होता है, जिसके कवि अज्ञात हैं ।
कुर्मापुत्रचरित के कर्ता जिनमाणिक्य अथवा उनके शिष्य अनन्तहंस माने
76 0 प्राकृत रत्नाकर