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________________ पंडित थे। आचार्य हेमचन्द्र के उपदेशों से प्रभावित हो गुजरात के चालुक्य राजा कुमारपाल ने जैनधर्म को अंगीकार किया था, उनके प्रबोध के लिये इस कृति की रचना की गई है। राजा कुमारपाल को मृत्यु के ग्यारह वर्ष पश्चात् इस ग्रंथ की रचना हुई थी। यह ग्रंथ जैन महाराष्ट्री प्राकृत में लिखा गया है, बीच-बीच में अपभ्रंश और संस्कृत का भी उपयोग किया गया है। अनेकानेक सूक्तियों की यहाँ भरमार है। इसमें पाँच प्रस्ताव हैं, पाँचवा अप्रस्ताव अपभ्रंश में है । सब मिलकर इसमें 54 कहानियाँ हैं जो गद्यपद्य में लिखी गई हैं, अधिकांश कहानियाँ प्राचीन जैन शास्त्रों से ली गई है । ग्रन्थकार की अन्य रचनाओं में सुमइनाहचरिय (सुमतिनाथचरित) सिन्दूरप्रकर (अथवा सूक्तिमुक्तावलि, शतार्थी, काव्य और श्रृंगार वैराग्यतरंगिणी आदि के नाम लिये जा सकते हैं। इस ग्रन्थ में पहले प्रस्ताव में अहिंसा, द्यूत, परदारगमन, वैश्यागमन, मद्यपान और परधन हरणसंबंधी मूलदेव अमरसिंह, दामन्नक, अभयसिंह और कुन्द की कथायें आती हैं। दूसरे प्रस्ताव में देवपूजा के समर्थन में देवपाल सोम भम, पद्मोत्तर और दीपशिखा की कथायें हैं। तीसरे प्रस्ताव में चंदनबाला, धन्य, कुरुचन्द्र, कृतपुण्य और भरत चक्रवर्ती की कथायें हैं । शीलव्रत पालन में शीलवती की कथा बड़ी मनोरंजक है। चौथे प्रस्ताव मे अहिंसा, सत्य आदि बारह व्रतों की बारह कथायें लिखी गई हैं। मकरध्वज, पुरंदर और जयद्रथ की कथायें संस्कृत में हैं। जयद्रकथा में कुष्माण्डी देवी का उल्लेख है । पाँचवा प्रस्ताव अपभ्रंश में हैं। इसका अध्ययन एल्सडोर्फ ने किया है । कवि सिद्धपाल द्वारा कथित जीवमन करणसंलापकथा धार्मिक कथाबद्ध रूपक काव्य है जिसमें जीव, मन और इन्द्रियों में वार्तालाप होता है। देह नामक नगरी लावश्य लक्ष्मी का निवास स्थान है। नगरी के चारों ओर आयुकर्म का प्रकार हैं, जिसमें सुख-दुख, क्षुधा, तृषा, हर्ष, शो आदि अनेक प्रकार की नालियाँ अनेक मार्ग हैं। इस नगरी में आत्मा नामका राजा अपनी बुद्धि नामकी महादेवी के साथ राज्य करता है। मन उसका प्रधान मंत्री है, पाँच इन्द्रियाँ पाँच प्रधान पुरूष हैं। आत्मा मन और इन्द्रियों में वाद-विवाद छिड़ जाने पर मन ने अज्ञान को दुःख का मूल कारण बताया । आत्मा ने मन को दोषी ठहराया और मन ने इन्द्रियों पर दोषारोपण किया । प्राकृत रत्नाकर 075
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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