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जाते हैं। ग्रन्थ की रचना का समय सन् 1513 है। सम्भवतः इसकी रचना उत्तर गुजरात में हुई है। कुम्मापुत्तचरियं की भाषा सरल है, अलंकार आदि का प्रयोग यहाँ नहीं है। व्याकरण के नियमों का ध्यान रखा गया है। कुम्मापुत्त की कथा में भावशुद्धि का वर्णन है। दान, शील, रूप आदि की महिमा बताई गई है। अन्त में गृहस्थावस्था में रहते हुए भी कुम्मापुत्त को केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। प्रसंगवश मनुष्यजन्म की दुर्लभता, अहिंसा की मुख्यता, कर्मो का क्षय, प्रमाद का त्याग आदि विषयों का यहाँ प्ररूपण किया गया है।
ऋषिभाषित सूत्र में सप्तम अध्ययन कुम्मापुत्त प्रत्येकबुद्ध से सम्बन्धित दिया गया है। इसके चरित्र पर भी दो काव्य उपलब्ध हुए हैं। पहला काव्य प्राकृत की 207 गाथाओं में निर्मित है। कथानक संक्षेप में इस प्रकार है- एक समय भगवान् महावीर ने अपने समवसरण में दान, तप, शील और भावना रूपी चार प्रकार के धर्म का उपदेश देकर कुम्मापुत्त (कूर्मापुत्र) का उदाहरण दिया कि भावशुद्धि के कारण वह गृहवास में भी केवलज्ञानी हो गया था। कुम्मापुत्त राजगृह के राजा महिन्दसिंह और रानी कुम्मा का पुत्र था। उसका असली नाम धर्मदेव था पर उसे कुम्मापुत्त नाम से भी कहते थे। उसने बाल्यावस्था में ही वासनाओं को जीत लिया था और पीछे केवलज्ञान प्राप्त किया। यद्यपि उसे घर में रहते सर्वज्ञता प्राप्त हो गई थी पर माता-पिता को दुःख न हो, इसलिए उसने दीक्षा नहीं ली। उसे गृहस्थावस्था में केवलज्ञान इसलिए प्राप्त हुआ था कि उसने पूर्व जन्मों में अपने समाधिमरण के क्षणों में भावशुद्धि रखने का अभ्यास किया था। 96. कुवलयमालाकहा
___आचार्य हरिभद्रसूरि के शिष्य दाक्षिणात्य उद्द्योतनसूरि ने ई. सन् 779 में जालोर में कुवलयमालाकहा की रचना की है। यह कथा-ग्रन्थ गद्य-पद्य दोनों में लिखा गया है। अपनी इसी विशिष्ट शैली के कारण कई प्राकृत विद्वान इसे कथा-ग्रन्थ की श्रेणी में न रखकर प्राकृत चंपूकाव्य' की श्रेणी में रखते हैं, लेकिन स्वयं ग्रन्थकार उद्योतनसूरि ने इसे कथा-ग्रन्थ ही माना है। कुवलयमाला में मुख्य रूप से कुमार कुवलयचन्द एवं राजकुमारी कुवलयमाला की प्रणय कथा वर्णित है। इस कथा-ग्रन्थ में कवि ने अनेक नवीन उद्भावनाएँ कर अपनी मौलिक
प्राकृत रत्नाकर 0 77