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________________ हो गया था। कुमारपालप्रतिबोध की रचना सं. 1241 में हुई थी जो कुमारपाल की मृत्यु के 11 वर्ष बाद आता है। यह इतिहास की दृष्टि से अधिक महत्त्व की रचना है। 447. स्वयंभूछंद स्वयंभूछंद के रचयिता अपभ्रंश के महाकवि स्वयंभू हैं। इनका समय लगभग 8-9वीं शताब्दी माना गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ तेरह अध्यायों में विभक्त है। प्रथम आठ अध्यायों में प्राकृत छन्दों का विवेचन किया गया है तथा अन्तिम पाँच अध्यायों में अपभ्रंश छंदों का विवेचन है। छंदों को समझाने के लिए उदाहरण प्रायः प्राकृत कवियों की रचनाओं के ही दिये गये हैं। स्वयंभू के पउमचरिउ के अनेक उदाहरण भी इसमें आये हैं। उदाहरण स्वरूप आई गाथाएँ काव्य-तत्त्वों की दृष्टि से समृद्ध हैं। सुभाषितों का भी इनमें प्रयोग हुआ है। यथा - ते विरला सप्पुरिसा जे अभणंता घडंति कज्जालावे। थोअच्चिअते अदुमा जे अमुणिअकुसुमणिग्गमा देंति फलं॥ (गा.3.1) अर्थात् - जैसे वे वृक्ष थोड़े ही होते हैं, जो फूलों के निकले बिना फल देते हैं। उसी प्रकार वेसज्जन पुरुष बिरले ही होते हैं, जो बिना प्रलाप किये कार्य पूरा करते हैं। इन प्रमुख छंद ग्रन्थों के अतिरिक्त प्राकृत के कुछ अन्य छंद-ग्रन्थों का भी उल्लेख मिलता है। नन्दिषेणकृत अजितशान्तिस्तव में प्रयुक्त 25 छंदों का विवेचन जिनप्रभ की टीका में छंदोलक्षण के अन्तर्गत मिलता है। कविदर्पण के टीकाकार ने अपनी टीका में छंदःकदली का उल्लेख किया है। इसके कर्ता का नाम ज्ञात नहीं है। वज्रसेनसूरि के शिष्य रत्नशेखरसूरि द्वारा विरचित छंदःकोश में 74 गाथाओं में अपभ्रंश के छंदों का विवेचन मिलता है। 448. हरिभद्र सूरि संस्कृत टीकाकारों में आचार्य हरिभ्रद का नाम सर्वप्रथम आता है। ये संस्कृत एव प्राकृत भाषा के प्रकाण्ड-पण्डित थे। उनका समय वि.स. 757 सौ 727 का है। प्रभावकचरित के अनुसार उनके दीक्षागुरु आचार्य जिनभद्र थे। पर स्वयं उनके उल्लेखानुसार जिनभद्र उनके गच्छपतिगुरु थे किन्तु जिनदत्त उनके प्राकृत रत्नाकर 0 377
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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