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________________ दीक्षागुरु थे | याकिनी महत्तरा उनकी धर्ममाता थीं। उनका कुल विद्याधर था । गच्छ एवं सम्प्रदाय श्वेताम्बर था । सिताम्बराचार्यजिनभद्रनिगदानुसारिणोविद्याधरकुलतिलकाचार्यजिनदत्तशिष्य धर्मतो याकिनी महत्तरासूनोः अल्पमतेः आचार्यहरिभद्रस्य आवश्यकनियुक्ति टीका । आचार्य हरिभद्र ने 1444 ग्रन्थों की रचना की थी। राजशेखरसूरि ने चतुर्विंशतिप्रबन्ध एवं मुनि क्षमाकल्याण ने खरतरगच्छ की पट्टावली में लिखा है कि बौद्धों के संहार करने का संकल्प के कारण उनके गुरु ने 1444 ग्रन्थ लिखने की आज्ञा प्रदान की थी। आचार्य हरिभद्र ने अपने प्रत्येक ग्रन्थ के अन्त में विरह शब्द का प्रयोग किया है। प्रभावकचरित्रानुसार अपने दो अत्यन्त प्रिय शिष्यों के विरह से व्यथित होकर ही उन्होंने प्रत्येक ग्रन्थ के अन्त में विरह शब्द लिखा है। वर्तमान में हरिभद्र सूरि के 75 ग्रन्थ मिलते हैं। जिनमें उनके प्रकाण्ड पाण्डित्य और विलक्षण प्रतिभा के संदर्शन होते हैं । इनके ग्रन्थों में समराइच्चकहा, धूर्ताख्यान, उपदेशपदटीका, दशवैकालिकवृत्ति आदि प्रसिद्ध हैं। 449. हाथीगुम्फा शिलालेख चेदि वंश में जैन सम्राट खारवेल जो उस समय उड़ीसा (कलिंग) का चक्रवर्ती सम्राट था। उसका एक शिलालेख उड़ीसा के भुवनेश्वर तीर्थ के पास उदयगिरि पर्वत की गुफा में खुदा हुआ मिलता है। यह हाथीगुम्फा के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें कलिंग के राजा खारवेल के जीवन वृत्तांतों तथा उसके शासन काल के प्रथम 13 वर्ष की घटनाओं का वर्णन है। यह शिलालेख ई.पू. 150 के लगभग का है । ब्राह्मी लिपि में लिखे गये इस अभिलेख में 17 पंक्तियाँ हैं, जो करीब 84 वर्ग फुट क्षेत्रफल में लिखी गई हैं। इसकी भाषा प्राचीन शौरसेनी या जैन शौरसेनी से मिलती-जुलती है। हाथीगुम्फा अभिलेख जैन अर्हतों की स्तुति से प्रारंभ होता है। लेकिन इसका उद्देश्य लौकिक ही है। यह प्राचीनतम राज प्रशस्ति है, जिसमें खारवेल के शासन काल की घटनाओं को गिनाया गया है । इस दृष्टि से यह समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति से तुलनीय है । 378 0 प्राकृत रत्नाकर
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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